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________________ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय ) कषाय-विकथा-निद्रा-प्रणयाक्षविनिग्रहात् । नित्योदयां दयां कुर्यात्पापध्वान्तरविप्रभाम् ॥२२॥ कषायेत्यादि, कषायादिप्रमादपञ्चदशकस्य विधिपूर्वकनिरोधात् । तत्र विकथाः मार्गविरुद्धाः कथा ३ भक्तस्त्रोदेशराजसंबन्धिन्यः । तत्र भक्तकथा-इदं चेदं च श्यामाकमाषमोदकादिः साधु भोज्यं, साध्वनेन भुज्यते, अहमपि च इदं भोक्ष्ये इत्यादिरूपा। तथा स्त्रीकथा-स्त्रीणां नेपथ्याङ्गहारहावभावादिवर्णनरूपा, 'कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा लाटी विदग्धा प्रिया' इत्यादिरूपा वा । तथा देशकथा-दक्षिणापथः प्रचुरानपान- ६ स्त्रीसंभोगप्रधानः, पूर्वदेशो विचित्रवस्त्रगुडखण्डशालिमद्यादिप्रधानः, उतरापथे शूराः पुरुषाः जविनो वाजिनो गोधूमप्रधानानि धान्यानि, सुलभं कुङ्कुमं, मधुराणि द्राक्षादाडिमकपित्थादीनि । पश्चिमदेशे सुखस्पर्शानि वस्त्राणि, सुलभा इक्षवः, शीतं वारीत्येवमादिः । तथा राजकथा-शूरोऽस्मदीयो राजा सधनः शौण्डः, गजपतिौडः, अश्वपतिस्तुरुष्क इत्यादिरूपा। एवं प्रतिकूला अपि भक्तादिकथा वाच्याः। यदा तु रागद्वेषावनास्कन्दन् धर्मकथाङ्गत्वेनार्थकामकथे कथयति तदा न वैकथिकः स्यात् । तदुक्तमार्षे 'पुरुषार्थोपयोगित्वास्त्रिवर्गकथनं कथा। तत्रापि सत्कथां धामामनन्ति मनीषिणः ।। तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा कथा । अन्यथा विकथैवासवपुण्यास्रवकारणम् ॥' [ महापु. ११८-११९ ] अहिंसाणुव्रतको निर्मल रखने के इच्छुक श्रावकको कषाय, विकथा, निद्रा, मोह और इन्द्रियोंका विधिपूर्वक निग्रह करनेसे सदैव ही प्रकाशित रहनेवाली दयाको करना चाहिए जो दया पाप रूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्य की प्रभाके समान है ॥२२॥ विशेषार्थ-ऊपर प्रमादीको हिंसक कहा है। प्रमाद पन्द्रह हैं-चार कषाय, चार विकथा, एक निद्रा, एक मोह और पाँच इन्द्रियाँ। क्रोध-मान-माया-लोभको कषाय कहते हैं । 'मार्गविरुद्ध कथाको त्रिकथा कहते हैं। वे चार हैं-भोजनसम्बन्धी, स्त्रीसम्बन्धी, देशसम्बन्धी और राजसम्बन्धी कथा । अमुक चावल, लड्डू आदि खाने में स्वादिष्ट होते हैं । अमुक आदमी अच्छी रीतिसे भोजन करता या कराता है। मैं भी अमुक वस्तु खाऊँगा, इत्यादि कथाको भक्तकथा कहते हैं। स्त्रियोंके हावभाव, आभूषण आदिकी चर्चाको स्त्रीकथा कहते हैं। जैसे, साहित्य शास्त्र में आता है कि कर्णाटक देशकी स्त्री सम्भोगका उपचार करनेमें चतुर होती है। लाट देशकी स्त्रियाँ चतुर और प्रिय होती हैं । यह सब स्त्रीकथा है । दक्षिण देशमें अन्नपानकी बहुलता है तथा स्त्रीसम्भोगकी प्रधानता है, पूर्व देशमें विचित्र वस्त्र, गुड़, खाँड़, चावल तथा मद्य आदिकी बहुतायत है, उत्तरापथके मनुष्य शूर होते हैं, घोड़े वेगवान होते हैं, गेहूँ बहुत होता है, केसर सुलभ है, मीठे दाख, अनार आदि पैदा होते हैं। पश्चिम देशमें कोमल वस्त्र होते हैं, ईख सुलभ है, इत्यादि देशकथा है। हमारा राजा शूर और धनी है, गौड़ देशके राजाके पास बहुत हाथी हैं, तुर्कोके पास उत्तम घोड़े हैं इत्यादि कथा राजकथा है । ये कथाएँ नहीं करना चाहिए। किन्तु जब राग-द्वेष न करते हुए धर्मकथाके अंगरूपसे अर्थ और कामकी कथा की जाती है तो उसे विकथा नहीं कहते। कहा है'पुरुषार्थमें उपयोगी होनेसे धर्म-अर्थ-कामके कथनको कथा कहते हैं। उनमें भी मनीषीगण धर्मकथाको ही सत्कथा कहते हैं। उसका फल अभ्युदयका अंग होनेसे अर्थ और कामका कथा भी कथा कही जाती है यदि ऐसा न हो तो वह विकथा ही है और पापाश्रवका कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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