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________________ १६२ धर्मामृत ( सागार) 'व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि कि क्वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि ।' [अमि. श्रा. ७१] ॥१५॥ अथाहिंसाणुव्रतस्वीकारविधिमाह हिस्य-हिंसक-हिंसातत्फलान्यालोच्य तत्त्वतः । हिंसां तथोज्झेन्न यथा प्रतिज्ञाभङ्गमाप्नुयात् ॥२०॥ तथा-तेन स्वशक्त्यनुसारलक्षणेन प्रकारेण ॥२०॥ अथ हिंसकादील्लक्षयति प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्तद्विच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसञ्चयः ॥२१॥ प्रमत्तः-कषायाद्याविष्टः । प्रपञ्चितं चैतदहिंसामहाव्रतोपदेशप्रस्ताव प्रागिति न पुनरिह १२ प्रपञ्च्य ते ॥२१॥ अथ गृहिणोऽप्यहिंसाणुव्रतनमल्याय विधिविशेषमाह विशेषार्थ-जैसे रस्सीके द्वारा बाँधनेसे अतिचार होता है वैसे ही किसी मन्त्र-तन्त्रके द्वारा कीलित करनेसे भी अतिचार होता है क्योंकि किसीकी जान न लेकर उसे मन्त्र-तन्त्रके द्वारा कीलित कर देनेसे भी यद्यपि बाह्य रूपसे व्रतकी रक्षा होती है किन्तु अन्तरंग रूपसे व्रतका भंग होता है । इसलिए व्रतीको सदा विशुद्ध परिणाम रखते हुए मैत्री आदि भावना तथा प्रमादसे रहित चेष्टाके द्वारा प्रवृत्ति करना चाहिए जिससे व्रतमें मलिनता न आवे ।।१९।। ___आगे अहिंसाणुव्रतको स्वीकार करनेकी विधि बताते हैं हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाके फलका यथार्थ रूपसे विचार करके हिंसाको इस प्रकारसे छोड़ना चाहिए जिससे व्रती प्रतिज्ञाके भंगको प्राप्त न हो ॥२०॥ विशेषार्थ-अहिंसाणुव्रत स्वीकार करनेसे पहले श्रावकको अपने गुरु, साधर्मी तथा अन्य मुमुक्षु जनोंके साथ हिंस्य आदिके स्वरूपको अच्छी तरहसे समझ लेना चाहिए और उसके बाद ही अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका त्याग करना चाहिए। ऐसा करनेसे नियमके टूटनेका भय नहीं रहता है ॥२०॥ आगे हिंसक आदिका लक्षण कहते हैं कषायसे युक्त आत्मा हिंसक है। द्रव्यात्मक अर्थात् पुद्गलकी पर्यायरूप और भावात्मक अर्थात् चेतनके परिणामरूप प्राण हिंस्य है। उन द्रव्यभावरूप प्राणोंका वियोग करना हिंसा है और उस हिंसाका फल है पापसंचय अर्थात् दुष्कर्मका बन्ध ॥२१॥ विशेषार्थ-हिंसक वह है जो हिंसा करता है। जो प्रमादी है, कषायसे युक्त है वह हिंसक है। इसका विवेचन अहिंसा महाव्रतके कथन में कर आये हैं अतः यहाँ नहीं किया। जो पुद्गलकी पर्यायरूप हैं वे द्रव्यप्राण हैं जैसे शरीर, इन्द्रियाँ वगैरह। और जो चेतनके परिणाम हैं वे भावप्राण हैं। उनको घातना या कष्ट पहुँचाना हिंसा है। तथा हिंसाका फल पापकर्मका बन्ध है ॥२१॥ गृहस्थ के भी अहिंसाव्रतको निर्मल रखनेकी विधि बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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