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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुथं अध्याय ) न हन्मीति व्रतं क्रुध्यन्निर्दयत्वान्न पाति न । भक्त्यनन् देशभङ्गत्राणात्त्वतिचरत्यधीः ॥१७॥ अघ्नन् - प्राणैरवियोजयन् । देशभङ्गत्राणात् - भङ्गश्व त्राणं च भङ्गत्राणं, देशस्यान्तर्बहिर्वृत्त्युभयरूपव्रतैकदेशस्य भङ्गत्राणमन्तर्वृत्त्या भञ्जनं बहिर्वृत्त्या च पालनं ततः । अधी: --अज्ञो असमीक्ष्यकारीत्यर्थः ॥ १७॥ अथ अतिचरतीति पदार्थमभिव्यक्तुं 'भुक्तिरोधं च' इत्यत्र च शब्देन समुच्चितं चातिचारजातं वक्तुमाह सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतविचारोंऽशभञ्जनम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यह्यास्तथाऽत्ययाः ||१८|| सापेक्षस्य - प्रतिपन्नमहिंसादिव्रतं न भनज्मीत्यपेक्षमाणस्य । परेऽपि शास्त्रान्तरनिर्दिष्टाः । तथातेन व्रतापेक्षापूर्वक देशभञ्जनलक्षणेन प्रकारेण ॥ १८ ॥ अथ मन्त्रादिकृतबन्धादीनामतिचारत्वसमर्थनपुरस्सरमतिचारपरिहारे यत्नं कारयन्नाहमन्त्रादिनाऽपि बन्धादिः कृतो रज्ज्वादिवन्मलः । तत्तथा यतनीयं स्यान्न यथा मलिनं व्रतम् ||१९|| १५ मल: -- यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धत्वादहिंसाणुव्रतेऽतिचारः स्यात्तदेकदेशभञ्जकत्वाविशेषात् । यतनीयं - मैत्र्यादिभावनालक्षणया प्रमादपरिहारपूर्वकचेष्टारूपया च यतनया वर्तितव्यम् । स्यादित्यादि, अन्यथा व्रतनैष्फल्यप्रसङ्गात् । तदुक्तम् एतदेव संगृह्णन्नाह - इसी बात को आगे कहते हैं क्रोध करनेवाला अज्ञानी व्रती पुरुष 'मैं जीवोंको नहीं मारूंगा' इस व्रतको निर्दय होनेके कारण पालता नहीं है तथा उस प्राणीकी जान नहीं लेता इसलिए तोड़ता भी नहीं है । किन्तु एकदेशका भंग और एकदेशका पालन करने से व्रतमें अतिचार लगाता है ||१७|| १६१ आगे अतिचारका लक्षण कहते हुए पन्द्रहवें श्लोक में आये 'भुक्ति रोधं च' च शब्दसे सूचित अन्य अतिचारोंको कहते हैं 'मैं स्वीकार किये हुए अहिंसा व्रतको नहीं तोड़ता हूँ' इस प्रकार व्रतकी अपेक्षा करनेवाला व्रती पुरुष जब अन्तर्वृत्ति या बाह्यवृत्तिसे व्रतके एकदेशका भंग करता है तो उसे अतिचार कहते हैं । इसी लक्षण के अनुसार मन्त्र-तन्त्र के प्रयोग आदि तथा अन्य शास्त्रों में कहे गये अतिचार भी समझ लेना चाहिए || १८|| विशेषार्थ - जो अक्षरोंका समूह इष्ट कार्यके साधने में समर्थ होता है और पाठ करनेसे सिद्ध हो जाता है उसे मन्त्र कहते हैं । और सिद्ध औषधि आदि क्रियाको तन्त्र कहते हैं । मन्त्र-तन्त्र के द्वारा किसीकी गतिका या मतिका स्तम्भन करना या उच्चाटन आदि करना भी उक्त रीति से अतिचारकी कोटि में आता है ||१८|| आगे मन्त्र आदिके द्वारा किये गये बन्ध आदि भी अतिचार हैं, इस बातका समर्थन करते हुए अतिचारोंको दूर करने में प्रयत्न करनेकी प्रेरणा करते हैं - मन्त्र आदिके द्वारा भी किया गया बन्ध आदि रस्सी वगैरह से किये गये बन्ध आदिकी तरह ही अतिचार है । इसलिए इस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे व्रत मलिन न हो ॥ १९ ॥ सा.-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only १२ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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