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________________ ३ १६० धर्मामृत ( सागार ) तदा निर्दयता विरत्यनपेक्षतया प्रवृत्तत्वेनान्तवृत्त्या व्रतस्य भङ्गो, हिंसाया अभावाच्च बहिर्वृत्त्या पालनमिति देशस्य भञ्जनाद्देशस्यैव पालनादतीचारव्यपदेशः प्रवर्तते । तदुक्तम् 'न मारयामीति कृतव्रतस्य विनैव मृत्यु क इहातिचारः । निगद्यते यः कुपितो वधादीन् करोत्यसौ स्यान्नियमेऽनपेक्षः ।। मृत्योरभावान्नियमोऽस्ति तस्य कोपायाहीनतया तु भग्नः । देशस्य भङ्गादनुपालनाच्च पूज्या अतीचारमुदाहरन्ति ॥' [ यच्चोक्तं व्रतेयत्ता विशीर्येतेति तदयुक्तं, विशुद्धाहिंसासद्भावे हि बन्धनादीनामभाव एव । ततः स्थितमेतत् बन्धादयोऽतिचारा एवेति ॥१६॥ या घोड़ा वगैरह रखे तो उन्हें बाँधकर न रखे। यह मध्यम पक्ष है। यदि बाँधकर रखना पड़े तो निर्दयता पूर्वक न बाँधे। यह जघन्य पक्ष है। आचार्य अमितगतिने कहा हैअतिचार सहित व्रतोंका पालन पुण्यके लिए नहीं होता। क्या लोकमें कहीं भी मल सहित धान्यको उपजते हुए देखा है। शंका-यहाँ कोई कहता है कि श्रावकने तो हिंसाका ही त्याग किया है, बन्धादिका त्याग नहीं किया। अतः वध बन्ध आदि करने पर भी कोई दोष नहीं है क्योंकि हिंसाका त्याग उससे खण्डित नहीं होता। यदि कहोगे कि श्रावकने हिंसाके साथ वध आदिका भी त्याग किया है तब तो बध बन्ध आदि करने पर व्रतका ही भंग हुआ कहा जायेगा क्योंकि जो व्रत उसने लिया था उसे तोड़ दिया। दूसरे यदि हिंसाके साथ बध आदि भी त्याज्य हैं तो फिर व्रतोंका कोई परिमाण नहीं रहेगा, क्योंकि प्रत्येक व्रतके अतिचारोंका भी व्रत लेनेसे व्रतोंकी संख्या बढ़ जायेगी। और ऐसा होने पर बन्ध आदि अतीचार नहीं कहलायेंगे। - समाधान-शंकाकारका यह कथन सत्य है कि उसने हिंसाका ही त्याग किया है, बन्ध आदिका त्याग नहीं किया। फिर भी हिंसाका त्याग करने पर वास्तवमें बन्ध आदिका भी त्याग समझना चाहिए; क्योंकि वे सब हिंसाके कारण हैं। किन्तु बन्ध आदि करने पर व्रतका भंग नहीं होता, केवल अतीचार लगता है। इसका खुलासा इस प्रकार है--व्रतके दो प्रकार होते हैं-आन्तरिक और बाह्य । 'मैं मारूँ' इस विकल्पका अभाव होनेसे जब क्रोध आदिके आवेशमें आकर दूसरे के प्राणोंको कष्ट पहुँचने की उपेक्षा करके बन्ध आदि करता है तब हिंसा तो नहीं करता किन्तु निर्दयतासे विरत होने की अपेक्षा न करके प्रवृत्ति करता है अतः आन्तरिक दृष्टिसे तो व्रतका भंग होता है और हिंसा न होनेसे बाह्य रूपसे व्रतका पालन भी होता है। इस प्रकार एकदेशका भंग और एक देशका पालन होनेसे अतीचार कहा जाता है । कहा है-"मैं नहीं मारूँगा" इस प्रकारका जिसने व्रत लिया है वह बिना जान लिये क्रुद्ध होकर जो वध आदि करता है वह अतीचार कहा जाता है। चूंकि प्राणीकी मृत्यु नहीं करता इसलिए उसका व्रत सुरक्षित है। किन्तु क्रुद्ध होकर दयाहीन हुआ इसलिए व्रतका भंग भी हुआ। इसलिए एक देशका भंग और एक देशकी रक्षा होनेसे पूज्य आचार्य अतीचार कहते हैं । तथा शंकाकारने जो यह आपत्ति की थी कि यदि वध आदि अतीचारोंको भी व्रतमें लिया जायेगा तो व्रतोंका परिमाण नहीं रहेगा, यह कहना भी उचित नहीं है क्योंकि जहाँ विशुद्ध अर्हिसा होती वहाँ वध-बन्ध आदि नहीं होते । अतः यह स्थित हुआ कि बन्ध आदि अतीचार ही हैं ।।१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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