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________________ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय ) १५९ किश्चिदूनः क्रियते। हलशकटादिषु पुनरुचितवेलायामसो मुच्यत इति चतुर्थः । भुक्तिरोध-अन्नपानादिनिषेधम् । सोऽपि दुर्भावाद् बन्धवदतीचारः। तीक्ष्णक्षुधापीडितः प्राणी म्रियते इत्यनादिनिरोधो न कस्यापि कर्तव्यः। अपराधकारिणि च वाचैव वदेदद्य ते न दास्यते भोजनादिकमिति । स्वभोजनवेलायां तु नियमत ३ एवान्यान् विधृतान् भोजयित्वा स्वयं भुञ्जीतान्यत्रोपवासचिकित्स्यव्याधितेभ्यः। शान्तिनिमित्तं चोपवासाद्यपि कारयेदिति पञ्चमः ॥ किंबहुना मूलगुणस्याहिंसालक्षणस्यातिचारो न भवति तथा यतनया वर्तितव्यम् ॥१५॥ अथ व्याख्यातमेवार्थ मुग्धधियां सुखस्मृत्यर्थ किञ्चिदुपसंगृह्णनाह गवायै नैष्ठिको वृत्ति त्यजेद्वन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं योजयेद्वा न निर्दयम् ॥१६।। नैष्ठिकः, पाक्षिकस्य तु नास्ति नियमः । एषः प्रशस्यतमः पक्षः। भोग्यान्-वाहदोहादावुपयोक्तुं ९ शक्यान् । उपेयात्-परिगृह्णीयात् । एष मध्यमः । योजयेत्-स्वयमन्येन वा, एषाधमः । अत्राह कश्चित्नन हिंसैव श्रावकेण प्रत्याख्याता न बन्धादयः । ततस्तत्करणेऽपि न दोषो हिंसाविरतेरखण्डितत्वात् । अथ बन्धादयोऽपि प्रत्याख्यातास्तदा तत्करणे व्रतभङ्ग एव विरतिखण्डनात् । किञ्च, बन्धादीनां प्रत्याख्येयत्वे व्रतेयत्ता विशीर्येत प्रतिव्रतमतिचारवतानामाधिक्यादिति । एवं च न बन्धादीनामतिचारतेति । अत्रोच्यतेसत्यं हिसैव प्रत्याख्याता न बन्धादयः। केवलं तत्प्रत्याख्यानेऽर्थतस्तेऽपि प्रत्याख्याता द्रष्टव्या हिंसोपायत्वातेषाम् । न च बन्धादिकरणेऽपि व्रतभङ्गः किन्त्वतीचार एव । द्विविधं हि व्रतमन्तर्वृत्त्या बहिर्वत्त्या च। तत्र मारयामीति विकल्पाभावेन यदा कोपाद्यावेशात् परप्राणप्रहाणमविगणयन् बन्धादी प्रवर्तते न च हिंसा भवति आदमी जितना भार स्वयं उठा सके और उतार सके उतना ही भार उससे उठवाना चाहिए वह भी उचित समयमें। चौपायों पर लादे जानेवाले यथायोग्य भारमें भी कुछ कमी करना चाहिए । गाड़ी, हल वगैरह में भी उचित समय तक काम लेनेके बाद उसे आराम देना चाहिए। यह चौथा अतीचार हुआ। दुर्भावसे खाना-पीना न देना पाँचवाँ अतीचार है। अतः अहिंसाणुव्रतमें अतीचार न लगे इस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिए । इसके सिवाय अहिंसाव्रतकी भावनाओंसे व्रतको स्थिर रखना चाहिए। वे भावना भी पाँच है-वचन गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन । अहिंसाव्रतके पालकको वचन और मनको वशमें रखना चाहिए क्योंकि इनके द्वारा हिंसाकी सम्भावना रहती है । इसी प्रकार देख भालकर चलना चाहिए और देख भाल कर ही प्रत्येक वस्तुको ग्रहण करना और रखना चाहिए। तथा देख भाल कर दिनमें ही भोजन करना चाहिए ॥१५॥ __आगे मन्द बुद्धियोंको सरलतासे स्मरण करानेके लिए उक्त अर्थका विशेष कथन करते हैं ___नैष्ठिक श्रावक गाय, बैल आदि जानवरोंके द्वारा आजीविका करना छोड़े। अथवा दूहने और बोझा ढोनेके लिए समर्थ उन पशुओंको बिना बाँधे हुए रखे । अथवा बाँधे तो निर्दयता पूर्वक न बाँधे ॥१६॥ विशेषार्थ-नैष्ठिक श्रावक गाय, भैंसे, घोड़े आदि पशुओंसे आजीविका न करे अर्थात् गाय, भैंस रखकर दूध आदि न बेचे और न बैल गाड़ी या घोड़ा ताँगा रखकर उससे आजीविका करे। यह उत्तम पक्ष है। पाक्षिक श्रावकके लिए यह नियम नहीं है। यदि नैष्ठिक अपने भोगनेके लिए गाय भैंस रखे या अपने आने-जाने आदिके लिए बैलगाड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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