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________________ १५८ धर्मामृत ( सागार) बन्ध-रज्ज्वादिना गोमनुष्यादीनां नियन्त्रणम् । स च पुत्रादीनामपि विनयग्रहणार्थ विधीयते । अतो दुर्भावादित्युक्तम् । दुर्भावं-दुष्परिणामं प्रबलकषायोदयलक्षणमाश्रित्य क्रियमाणो यो बन्धस्तं वर्जयन्नित्यर्थः । ३ अत्रायं विधिः-बन्धो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात् । सोऽपि सार्थको वाऽनर्थको वा। तत्रानर्थकस्तावच्छ्रावकस्य कर्तुं न युज्यते। सार्थक: पुनरसी द्वधा-सापेक्षो निरपेक्षश्च । तत्र सापेक्षो यो दामग्रन्थिना शिथिलेन चतुष्पदानां विधीयते । यश्च प्रदीपनादिषु मोचयितुं छेत्तुं वा शक्यते । निरपेक्षो यन्निश्चलमत्यर्थममी ६ बध्यन्ते । द्विपदानां तु दासदासीचोरशठादिप्रमत्तपुत्रादीनां यदि बन्धो विधीयते तदा सविक्रमणा एवामी बन्धनीया रक्षणीयाश्च यथाग्निभयादिषु न विनश्यन्ति । यद्वा द्विपदचतुष्पदाः श्रावकेण त एव संग्राह्या येऽबद्धा एव तिष्ठन्तीति प्रथमोऽतिचारः । वधं-दण्डकशाधभिघातम् । सोऽपि दुर्भावाद्विधीयमानो बन्धवदतीचारः । ९ यदि पुनः कोऽपि न करोति विनयं तदा तं मर्माणि मुक्त्वा लतया दवरकेण वा सकृद् द्विर्वा ताडयेदिति द्वितीयः। छेदः-कर्णनासिकादोनामवयवानामपनयनम् । सोऽपि दुर्भावात्क्रियमाणोऽतिचारो निर्दयं हस्तादीनां छेद इत्यर्थः। स्वास्थ्यापेक्षया तु गण्डवणादिच्छेदनदहनादिकं ससान्त्वनं कुर्वतोऽपि नातिचारः स्यादिति १२ तृतीयः । अतिभारादिरोपणं-न्याय्यभारादतिरिक्तस्य वोढुमशक्यभारस्याधिरोपणं वृषभादीनां पृष्ठस्कन्धादौ वहनायाधिरोहणम् । तदपि दुर्भावात् क्रोधाल्लोभावा क्रियमाणमतीचारः । अत्राप्यं विधि:-श्रावकेण तावद् द्विपदादिवाहनेन जीविका प्रागेव मोक्तव्येति एषः श्रेष्ठः पक्षः। अथान्योऽसौ न स्यात्तदा द्विपदो यावन्तं १५ भारं स्वयमुत्क्षिपत्यवतारयति च तावन्तमेव बाह्यते मोच्यते चोचितवेलायाम् । चतुष्पदस्य तु यथोचितभारः विशेषार्थ-अहिंसाणुव्रतके पाँच अतीचार कहे हैं-रस्सी आदिसे गाय, मनुष्य आदिके बाँधनेको बन्ध कहते हैं। पुत्र आदिको भी विनीत बनानेके लिए माता-पिता बाँधते हैं। इसलिए 'दुर्भाव या खोटे परिणामसे' कहा है। अतः प्रबल कषायके उदयरूप दुर्भाव या दुष्परिणामसे जो बन्ध किया जाता है उसे छोड़ना चाहिए। इसकी विधि इस प्रकार हैबन्ध या तो दोपायोंका होता है या चौपायोंका होता है। वह भी सप्रयोजन या निष्प्रयोजन होता है। उनमें से निष्प्रयोजन बन्ध तो श्रावकको नहीं करना चाहिए। सप्रयोजन बन्धके भी दो भेद हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष । ढीली गाँठ लगाकर चौपायोंका जो बन्ध किया जाता है, जिसे आग वगैरह लगनेपर सरलतासे खोला या तोड़ा जा सके वह सापेक्ष है। और जो दृढ़तासे बाँधा जाता है कि वे गरदन तक न हिला सके, वह निरपेक्ष बन्ध है । दासी, दास, चोर, व्यभिचारी, पागल आदि दोपायोंको जब बाँधा जाये तो इन्हें इस तरह बाँधना चाहिए कि अग्नि आदिका भय उपस्थित होनेपर वे जलकर मर न जायें। अथवा श्रावकको ऐसे ही दोपाये और चौपाये रखने चाहिए जिन्हें बाँधनेकी आवश्यकता न हो। यह पहले अतिचारका कथन हुआ। दण्ड या कोड़े वगैरहसे पीटनेको वध कहते हैं। वह भी यदि दुर्भावसे किया जाये तो बन्धकी तरह अतीचार होता है। यदि कोई अवज्ञा करता है तो उसके मर्म स्थानोंको छोड़कर हलकेसे एक या दो बार ताड़ना करना चाहिए। यह दूसरे अतीचारका कथन हुआ। नाक-कान आदि अवयवोंके काटनेको छेद कहते हैं। वह भी दुर्भावसे करनेपर अतीचार है । स्वास्थ्यके लिए फोड़े वगैरह को चीरना या हाथ-पैर काटना अतीचार नहीं है। निर्दयतापूर्वक हाथ आदिका काटना अतीचार है। यह तीसरे अतीचारका कथन हुआ। जितना बोझा उचित हो उससे अधिक, जिसे ढोना शक्य न हो, इतना बोझा लादना अतिभारारोपण नामक अतीचार है। वह भी दुर्भावसे अथवा क्रोध या लोभसे करनेपर अतीचार है । इसकी भी विधि इस प्रकार है-श्रावक को दोपायों या चौपायोंकी सवारीसे आजीविका करना छोड़ ही देना चाहिए यह उत्तम पक्ष है। यदि यह सम्भव न हो तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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