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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय )
१५७ अथाहिंसाणुव्रताराधनोपदेशार्थमुत्तरप्रबन्धः । तत्र तावत् प्रयोक्तारमाश्रित्येदमुच्यते
सन्तोषपोषतो यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः ।
भावशुद्धोकसर्गोऽसावहिसाणुव्रतं भजेत् ॥१४॥ भावशुद्धयेकसर्ग:-मनःशुद्धावेकानः । यल्लोकः--
'सत्यपूतं वदेद्वाक्यं वस्त्रपूतं जलं पिवेत् । दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं मनःपूतं समाचरेत् ॥' [ मनुस्मृ. ६।४६ ] 'व्रतानि सातिचाराणि सुकृताय भवन्ति न।
अतीचारास्ततो हेयाः पञ्च पञ्च व्रते व्रते ॥ [ ] ॥१४॥ इत्यङ्गीकृत्य बन्धाद्यतीचारपञ्चकं मुञ्चन् वाग्गुप्त्यादिभावनापञ्चकेनाहिंसाणुव्रतमुपयुञ्जीतेत्यु- ९ पदिशति
'मुञ्चन् बन्धं वधच्छेदावतिभारोधिरोपणम् ।
भुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत् ॥१५॥ अहिंसाणुव्रतकी आराधनाका उपदेश देने के लिए आगेका कथन करते हुए सबसे प्रथम यह बतलाते हैं कि अहिंसाणुव्रतका पालक कौन हो सकता है
___ जो सन्तोषसे पुष्ट होनेके कारण थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रहवाला है तथा मनकी शुद्धिकी ओर ध्यान रखता है वह अहिंसाणव्रत का पालन कर सकता है॥१४॥
विशेषार्थ-आरम्भ और परिग्रह हिंसाकी खान है। इनकी बहुतायतमें हिंसाकी भी बहुतायन होती है और इनके कम होनेसे हिंसामें भी कमी होती है। किन्तु वह अल्पआरम्भ और अल्पपरिग्रह सन्तोषजन्य होने चाहिए अभावजन्य नहीं। दुनिया में विशेषतया भारतमें गरीबीसे पीड़ित जन ऐसे भी हैं जिनके पास न कोई आरम्भ है और न परिग्रह । किन्तु इससे वे महान् दुःखी रहते हैं। उनकी बात नहीं है। ऐसे में भी जो सन्तुष्ट रहते हैं या सन्तोषके कारण आरम्भ और परिग्रह घटा लेते हैं वे अहिंसाणुव्रत पालनेके योग्य होते हैं। इसके साथ ही मानसिक शुद्धि की ओर सतत ध्यान रहना जरूरी है क्योंकि मानसिक अशुद्धिका नाम ही भावहिंसा है और जैन धर्म में भाव हिंसाका नाम ही हिंसा है। भावहिंसासे सम्बद्ध होनेसे द्रव्यहिंसाको भी हिंसा कहा जाता है। अतः अहिंसाणुव्रतका पालन करना हो तो मनकी शुद्धिकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिए। मनुस्मृति में भी कहा है-'सत्यसे पवित्र वचन बोलना चाहिए। वस्त्रसे छाना जल पीना चाहिए। दृष्टिसे आगेकी पृथ्वीको देखकर पैर रखना चाहिए और शुद्ध मनसे कार्य करना चाहिए' ॥१४॥
___ आगे उपदेश देते हैं कि पाँच अतिचारोंको दूर करते हुए पाँच भावनाओंसे अहिंसाणुव्रतको संयुक्त करे
खोटे परिणामोंसे बन्ध, वध, छेद, अतिभार लादना और भुक्तिरोधको छोड़नेवाले व्रत-प्रतिमाके धारीको भावनाओंसे अहिंसाणुव्रतको बढ़ाना चाहिए ।।१५।। १. 'बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः । - तत्त्वार्थसूत्र ७।२५ । रत्नकरण्ड श्रा., ५४ श्लो. ।
पुरुषार्थ सि. १८३ श्लो.। २. रादिरो-मु.। ३. 'वाङ्मनोगुप्तोर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥'-त. सू. ७।४।
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