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________________ १५६ धर्मामृत ( सागार ) 'स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ॥' [ पुरुषार्थ. ७७] अपि च 'भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत् कुर्यादजन्तुजित् ।।' [ सो. उपा. ३४७ ] ॥११॥ अथ सांकल्पिकवधवर्जनं नियमयति गृहवासो विनारम्भान्न चारम्भो विना वधात् । त्याज्यः स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः ॥१२॥ मुख्यः-साङ्कल्पिक, इत्यर्थः । आनुषङ्गिक:-कृष्याद्यनुषङ्गे जातः ॥१२॥ प्रयत्नहेयां हिंसामुपदिशति दुःखमुत्पद्यते जन्तोमनः संक्लिश्यतेऽस्यते। तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः ॥१३॥ दुःख-शरीरक्लेशः । जन्तोः-स्वजीवस्य परजीवस्य वा । अस्यते--विनाश्यते ॥१३॥ विशेषार्थ-एकेन्द्रिय जीवोंके पाँच प्रकार हैं-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । इन पाँचोंके बिना गृहस्थाश्रम नहीं चलता। मकान आदि बनवानेके लिए मिट्टी, जमीन खोदनी पड़ती है, जल, वायु, अग्निका उपयोग करना ही पड़ता है। यही स्थिति वनस्पतिकी भी है। फिर भी इनका अनावश्यक उपयोग नहीं किया जाता । प्रायः सभी शास्त्रकारोंने त्रसहिंसाके त्यागी श्रावकको अनावश्यक एकेन्द्रिय घातसे बचनेकी ही प्रेरणा की है और उसे भी अणुव्रतका अंग माना है ।।११।। संकल्पी हिंसाके त्यागका उपदेश देते हैं गृहस्थाश्रम आरम्भके-कृषि आदि जीविकाके बिना सम्भव नहीं है और आरम्भ हिंसाके बिना नहीं होता। इसलिए जो मुख्य संकल्पी हिंसा है उसे सावधानतापूर्वक छोड़ना चाहिए। और कृषि आदि कर्ममें होनेवाली हिंसाका छोड़ना तो अशक्य है ।।१२।। विशेषार्थ-हिंसाके दो रूप हैं-मुख्य और आनषंगिक । जो हिंसा जान-बूझकर हिंसाके लिए ही की जाती है वह मुख्य हिंसा है। जैसे मैं इस प्राणीको मांस आदिके लिए मारता हूँ। और जो हिंसा जान-बूझकर नहीं की जाती किन्तु सावधानी रखते हुए भी हो जाती है वह आनुषंगिक है । जो घरमें रहता है उसे अपनी जीविकाके लिए कोई आरम्भ करना ही पड़ता है किन्तु आरम्भ हिंसामूलक नहीं होना चाहिए। फिर भी उसमें हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसासे बचना गृहस्थ के लिए सम्भव नहीं है ।।१२।। हिंसाको क्यों छोड़ना चाहिए, यह बताते हैं जिस हिंसामें जीवको दुःख उत्पन्न होता है, उसके मनमें संक्लेश होता है, और उसकी वर्तमान पर्याय छूट जाती है उस हिंसाको पूरे प्रयत्नसे छोड़ना चाहिए ॥१३॥ विशेषार्थ--किसी भी प्राणीको जब मारा जाता है तो उसे शारीरिक कष्ट होनेके साथ मानसिक क्लेश भी होता है। इसके साथ ही उसकी जीवनलीला भी समाप्त हो जाती है, ऐसी हिंसासे कौन नहीं बचना चाहेगा। किसीकी जान ले लेना बहुत ही क्रूर कार्य है ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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