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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) एवं त्यक्तगृहस्योपासकस्याहिंसाणुव्रत विधानमुपदिश्येदानीं गृहवर्तनस्तद्विधानमतिदिशन्नाहइत्यनारम्भजां जह्याद्विसामारम्भजां प्रति । व्यर्थ स्थावर हिसावद्यतनासावहेद गृही ॥१०॥ इति - अनेन त्यक्तगृहोपासकोपदिष्टेन प्रकारेण । अनारम्भजां - अमुं जन्तुं मांसाद्यथित्वेन हन्मीति संकल्पप्रभवाम् । द्विविधा हिंसा आरम्भजा अनारम्भजा च । तत्र त्यक्तगृहो द्वयीमपि जहाति । गृही तु नियम/दनारम्भजामेव त्यजति, आरम्भजायास्तेन त्यक्तुमशक्यत्वात् । उक्तं च ६ 'हिंसा द्वेधा प्रोक्तारम्भमनारम्भभेदतो दक्षैः । गृहवासतो निवृत्त द्वेधापि त्रायते तां च ॥ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रवर्तितारम्भः । १५९ आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥' [ अमिश्रा. ६।६-७ ] जह्यात् — योगत्रयस्य करणकारणाभ्यां त्यजेच्छक्त्या । तदनुमत्यापि त्यजतो न दोषः किं तहि गुण एव भवेत् । यतनां — समितिपरताम् ॥१०॥ १२ अथ स्थावरवधादपि निवृत्तिमुपपादयतियन्मुक्त्यङ्गमहसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः । एकाक्षवधमप्युज्झेद्यः स्यान्नावज्यंभोगकृत् ॥११॥ मुमुक्षुः - बुभुक्षोर्नास्ति नियम इति भावः । उज्झेत् । उक्तं च-'जे तसकाया जीवा पुव्वुद्दिट्ठा ण हिंसिदव्वा ते । एइंदिया विणिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ॥ [ वसु. श्री. २०९ ] १८ अवर्ण्य भोगकृत् - अवर्ज्यानां वर्जयितुमशक्यानां, आवर्ज्यानां वा अर्जनीयानां सेव्यार्थानां कारणं यो न स्यात् । तदुक्तम् इस प्रकार गृहत्यागी श्रावकके अहिंसाणुव्रतका कथन करके अब घर में रहनेवाले श्रावक अहिंसाणुव्रत का कथन करते हैं 'गृहत्यागी श्रावक के लिए बतलाये गये विधि के अनुसार ही घरमें रहनेवाले श्रावकको उठने-बैठने आदि में होनेवाली हिंसाको छोड़ना चाहिए । बिना प्रयोजनके एकेन्द्रियघातकी तरह कृषि आदि आरम्भ में होनेवाली हिंसा के प्रति सावधानता बरते ||१०|| विशेषार्थ- - रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी नौ संकल्पोंसे त्रसहिंसा के त्यागको अहिंसा कहा है । किन्तु वहाँ उसको दो भागों में नहीं विभाजित किया । किन्तु आचार्य अमितगतिने हिंसा के दो भेद किये हैं-आरम्भी और अनारम्भी । जो श्रावक गृहवास से निवृत्त हो जाता है वह दोनों प्रकारकी हिंसाको बचाता है । किन्तु जो गृहस्थाश्रममें रहता है, आरम्भ करता है वह आरम्भी हिंसाको नहीं छोड़ सकता। फिर भी उसमें सावधानी रखता है । जैसे वह व्यर्थ एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा नहीं करता, वैसे ही आरम्भमें भी करता है ॥१०॥ अब स्थावर जीवोंकी भी हिंसा न करनेका उपदेश देते हैं यतः द्रव्यहिंसा और भावहिंसा से विरतिरूप अहिंसा ही मोक्षका कारण है, इसलिए जो श्रावक मोक्ष की प्राप्तिका इच्छुक है उसे ऐसे एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा भी छोड़नी चाहिए जो ऐसे सेवनीय पदार्थोंके कारण होती है जिनको छोड़ना शक्य नहीं है ॥ ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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