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________________ १५४ धर्मामृत ( सागार) एतदेव पद्यद्वयेन संगृह्णन्नाह इमं सत्वं हिनस्मीति हिन्धि हिन्ध्येष साध्विमम् । हिनस्तीति वैधं नाभिसन्दध्यान्मनसा गिरा ॥८॥ वर्तेत न जीववधे करादिना दृष्टिमुष्टिसन्धाने । न च वर्तयेत्परं तत्परे नखच्छोटिकावि न च रचयेत् ॥९॥ इम-पुरोवतिनं, हिन्धि हिन्धि-मारय मारय । नाभिसन्दध्यात्-न संकल्पयेत् ॥८॥ दृष्टीत्यादि । उक्तं च _ 'गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् ।' अपि च 'आसनं शयनं यानं मार्गमन्यत्र तादृशम् । अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि ॥' [ सो, उपा. ३२१-३२२] तत्परे-जीवबन्धे स्वयमेव प्रवर्तमाने पुंसि ॥९॥ हूँ, अर्थात् मैं त्रसोंको मारता हूँ इस प्रकारका वचन स्वयं नहीं बोलता। तथा वचनसे त्रसहिंसा नहीं कराता हूँ अर्थात् त्रसोंको मारो-मारो इस प्रकारके वचन नहीं बोलता हूँ। त्रसहिंसा करनेवाले दूसरे व्यक्तिकी वचनसे अनुमोदना नहीं करता हूँ। अर्थात् तुम अच्छा करते हो, ऐसे वचन नहीं बोलता हूँ। तथा कायसे स्वयं त्रसहिंसा नहीं करता, अथोत् त्रसको मारने में स्वयं शारीरिक व्यापार नहीं करता। कायसे त्रसहिंसा नहीं कराता. अर्थात त्रसों को मारने में हाथ आदिके संकेतसे दूसरेको प्रेरित नहीं करता । त्रसहिंसा करनेवालेकी कायसे अनुमोदना नहीं करता अर्थात् त्रसहिंसा करनेवालेका नख, चूंटी आदिसे अभिनन्दन नहीं करता हूँ। यह नौ संकल्पोंसे हिंसाका त्याग है ॥७॥ उक्त नौ संकल्पोंको दो श्लोकोंसे कहते हैं मैं इस प्राणीको मारता हूँ, तुम इस प्राणीको मारो-मारो, यह पुरुष इस प्राणीको अच्छा मारता है, इस प्रकारसे मनके द्वारा और वचनके द्वारा घरसे निवृत्त श्रावकको हिंसाका संकल्प नहीं करना चाहिए। तथा दृष्टि और मुष्टिका जिसमें संयोजन किया जाता है ऐसे त्रस जीवोंके घातमें हस्तादिकके द्वारा स्वयं प्रवृत्ति न करे और न दूसरोंको प्रवृत्त करे। तथा स्वयं ही जीववध करनेवाले पुरुषमें नाखूनोंसे चूंटी आदिका प्रयोग न करे ।।८-९।। __विशेषार्थ-इस प्रकारके नौ संकल्पोंसे गृहत्यागी श्रावक त्रसहिंसाका त्याग करता है। यहाँ जीववधको दृष्टि और मुष्टिका सन्धानवाला कहा है। दृष्टि तो आँखको कहते हैं यह ज्ञान क्रियाका उपलक्षण है और हाथको अँगुलियोंके बन्ध विशेषको मुष्टि कहते हैं यह ग्रहण आदि करने का उपलक्षण है । जो बतलाता है कि पुस्तक, आसन आदि उपकरणोंको देख-भाल करके ही ग्रहण करना चाहिए। सोमदेव सूरिने कहा है-घरके सब काम देखभालकर करना चाहिए । आसन, शय्या, मार्ग, अन्न तथा अन्य भी जो वस्तु हो, समयपर उसका उपयोग करते समय बिना देखे उपयोग नहीं करना चाहिए ॥८-९।। १. स्मीमं हि-आ. । २. वदन्नाभि -मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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