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________________ १६५ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) 'ननु शुभ उपयोगः पुण्यबन्धस्य हेतुः प्रभवति खलु पापं तत्र यत्राशुभोऽसौ । निजमहिमनि रागद्वेषमोहैरपोढः परिदृढदृढभावं याति शुद्धो यदा स्यात् ॥' [ तथा 'भावेण कुणइ पावं पुण्णं भावेण तह य मोक्खं वा। इयमंतरणाऊण जं सेयं तं समायरह ।' [ भाव सं. ५ गा. ] 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धोऽत्र विषयासक्तेर्मोक्षो निर्विषये स्मृतः ॥ [ ] ॥२३॥ अथैवमतिचारपरिहारद्वारेणाहिसाणुव्रतपरिपालनमुपदिश्य साम्प्रतं रात्रिभोजनवर्जनव्रतबलेन तदुपदि दि . शन्नाह अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । नक्तं भुक्ति चतुर्धाऽपि सदा धोरस्त्रिधा त्यजेत् ॥२४॥ चतुर्धा अपि । यत्स्वामी 'अन्नं पानं खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभक्तविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ [ रत्न. श्रा. १४२ ] ॥२४॥ जानेपर भी हिंसा नहीं है। जैसे एक साधु ईर्यासमितिसे चलता है फिर भी यदि अचानक कोई जन्तु उड़ता हुआ आकर उसके पैरसे दबकर मर जाता है तो उस साधुको उस जीवके वधका थोड़ा भी पाप नहीं लगता; क्योंकि साधुमें प्रमादका योग नहीं है यह अपनी क्रियामें सावधान है। किन्तु जो असावधानीसे प्रवृत्ति करता है, जीवोंके नहीं मरनेपर भी उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है। अतः हिंसा युक्त परिणाम ही वास्तव में हिंसा है। इसलिए हिंसा भावोंपर प्रवलम्बित है। अतः अपने भावोंको ठीक रखकर प्रवृत्ति करनेसे जीवघात होनेपर भी हिंसा नहीं कही जाती। जीवके भाव तीन प्रकारके होते हैं-शुभ-अशुभ और शुद्ध । शुभोपयोग और अशुभोपयोग पुण्यबन्ध और पापबन्धके प्रधान कारण हैं तथा शुद्धोपयोग मोक्षका प्रधान कारण है। कहा है-'शुभ उपयोग पुण्यबन्धका कारण है और जहाँ अशुभ उपयोग होता है वहाँ पापबन्ध होता है। जब शुद्ध उपयोग होता है तब राग-द्वेषमोहसे रहित होकर अपनी आत्मामें दृढ़ होता है तथा-भावसे पाप, भावसे पुण्य और भावसे ही मोक्ष होता है। इनके अन्तरको जानकर जो आचरणीय है उसका आचरण कर।' और भी कहा है-'मनुष्योंका मन ही बन्ध और मोक्षका कारण है। विषयासक्त होनेसे बन्ध होता है और निविषय होनेपर मोक्ष होता है।' ॥२३॥ ___इस तरह अतिचारोंसे बचावके द्वारा अहिंसाणुव्रतके पालनका उपदेश देकर अब रात्रिभोजन त्यागके द्वारा उसके पालनका उपदेश देते हैं अहिंसाणुव्रतकी रक्षाके लिए और मूल गुणोंको निर्मल करनेके लिए धीर व्रतीको मन-वचन-कायसे जीवनपर्यन्तके लिए रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनका त्याग करना चाहिए ॥२४॥ _ विशेषार्थ-आचार्य अमृतचन्द्रने अपने पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें पाँच अणुव्रतोंका कथन करनेके पश्चात् रात्रिभोजनके त्यागका कथन किया है और आचार्य अमितगतिने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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