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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) १५१ अपि च 'स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम् । व्रतशोलावलि मुक्तेः कण्ठिकामिव निर्मलाम् ॥' [ महापु. २४।१६३, १६५ ] तथा तस्यैव राजर्षेः स्वप्नार्थे शान्तिकर्मानन्तरं चतुर्विधश्रावकधर्ममनुतिष्ठतः शीलवर्णनं यथा 'शीलानुपालने यत्नो विभोरस्य महानभूत् । शीलं हि रक्षितं यत्नादात्मानमनुरक्षति ॥ व्रतानुपालनं शीलं व्रतान्यक्तान्यगारिणाम् । स्थूलहिंसाविरत्यादिलक्षणानि विचक्षणैः ।। सभावनानि तान्येष यथायोग्यं प्रपालयन् । प्रजानां पालकः सोऽभूद्धौरेयो गृहमेधिनाम् ॥' [ महापु. ४११०९-१११ ] तथा शान्तिपुराणे अपराजितराजस्य सगमहाकविरपि श्रावकधर्मस्वीकारमुवाच 'जाततत्त्वरुचिः साक्षात्तत्राणुव्रतपञ्चकम् । भव्यतानुगृहीतत्वादगृहीदपराजितः ॥ [ ] जाता है इस तरह तीन कालोंकी अपेक्षा ४९४३=१४७ भेद होते हैं। ये भेद अहिंसा व्रतकी तरह शेष सत्यादि व्रतोंमें भी होते हैं। दो और तीन भंगोंको लेकर भी भेद बतलाते हैं-मन, वचन, कायसे स्थूल हिंसा न स्वयं करता है न दूसरेसे कराता है। मन और वचनसे स्थल हिंसा न स्वयं करता है और न दूसरेसे कराता है। मन और कायसे स्थल हिंसा न स्वयं करता है और, न दूसरेसे कराता है। मन और कायसे स्थूल हिंसा न स्वयं करता है और न दूसरोंसे कराता है। वचन और कायसे स्थूल हिंसा न स्वयं करता है, न दूसरेसे कराता है। जब मनसे और वचनसे न करता है न कराता है तब मनसे तो मारनेका अभिप्राय नहीं है, वचनसे भी हिंसकको नहीं कहता, किन्तु शरीरसे ही संकेत आदि करता है। जब मनसे और कायसे न करता है न कराता है तब मनसे तो अभिप्रायरहित है ही शरीरसे भी संकेतादि नहीं करता, केवल वचनसे ही कहता है कि मैं मारूँ या मैं घात करवाऊँ। जब वचन और कायसे न करता है न कराता है तब केवल मानसिक अभिप्रायसे ही करता और कराता है। किन्तु सर्वत्र ही मन, वचन, कायसे अनुमति तो है ही। इसी प्रकार अन्य विकल्प भी विचार लेना चाहिए। __ 'स्थूल' शब्दका ग्रहण तो उपलक्षण है। उससे निरपराध जीवोंकी संकल्पपूर्वक हिंसा आदि भी लेना चाहिए। आगे बतलायेंगे कि संकल्पी हिंसा एकदम छोड़ने योग्य है। अब प्रश्न होता है कि पुराण आदिमें कथन आता है कि चक्रवर्ती आदि राजन्यवर्ग भी अणुव्रत धारण करता था। किन्तु राजाको तो अपराधियोंको कानूनके अनुसार दण्ड देना होता है तब वे अहिंसाणुव्रतका पालन कैसे कर सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि राजा निष्पक्ष होकर जो शत्रु और पुत्रको दोपानुसार दण्ड देता है उसका वह दण्ड इस लोककी भी रक्षा करता है क्योंकि उससे अपराध रुकते हैं और परलोककी भी रक्षा करता है। इस नीतिके अनुसार जो प्रशासक होता है वह अपनी पदवी और शक्तिके अनुसार स्थूल हिंसा आदिका त्याग करता है। अतः उसमें कोई विरोध नहीं आता। महापुराणमें चक्ररत्नकी प्राप्ति के पश्चात् भगवान् ऋषभदेवके उपदेशसे प्रतिबुद्ध राजर्षि भरतके व्रतादि ग्रहणके वर्णनमें कहा है-'भगवानका उपदेश सुननेके अनन्तर परमानन्दका अनुभव करते हुए भरतने सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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