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________________ १५० धर्मामृत ( सागार) एवं सर्वे मिलिता एकोनपञ्चाशद् भवन्ति ॥४९॥ एते च त्रिकालविषयत्वात्प्रत्याख्यानस्य कालत्रयेण गुणिताः सप्तचत्वारिंशदधिकं शतं भवन्ति ॥१४७॥ त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया साम्प्रतिकस्य संवरणेनानाग३ तस्य च प्रत्याख्यानेनेति । एते भङ्गा अहिंसावतवद् व्रतान्तरेष्वपि द्रष्टव्याः । अत्रेयं भावना दिक् । तत्र तावद् बाहुल्येनोपदेशाद् द्विविधत्रिविधभङ्गमाश्रित्योच्यते । स्थूलहिंसा न करोत्यात्मना न कारयत्यन्येन मनसा वचसा कायेन चेति। तथा स्थूलहिंसा न करोति न कारयति मनसा वचसा, यद्वा मनसा कायेन, यद्वा वाचा कायेनेति । तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न कारयति तदा मनसा अभिसन्धिरहित एव वाचापि हिंसकमब्रुवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टितादिना असंज्ञिवत् करोति । यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसाभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवाभोगाद् वाचैव हन्मि घातयामि वेति ब्रूते । यदा तु वाचा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोति कारयति च । अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रवास्ति । एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः। उक्तं च-- 'विरतिः स्थलहिंसादेद्विविधा त्रिविधा......ना। अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ।।' [ ] किंच, स्थूलग्रहणमुपलक्षणम् । तेन निरपराधसंकल्पपूर्वकहिंसादोनामपि ग्रहणम् । एतेन 'दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामुं च रक्षति ।। राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं धृतः ॥' [ ] इति वचनादपराधकारिषु यथाविधि दण्डप्रणेतृणामपि चक्रवर्त्यादीनामणुव्रतादिधारणं पुराणादिषु बहुशः श्रूयमाणं न विरुध्यते, आत्मीयपदवीशक्त्यनुसारेण तैः स्थूलहिंसादिविरतेः प्रतिज्ञानात् । तत्रार्षे १८ चक्रलाभोत्तरकालं पुरुदेवदेशनाप्रतिबुद्धस्य भरतराजर्षेः व्रतादिलाभवर्णनं यथा 'ततः सम्यक्त्वशुद्धि च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । निष्कलां भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन् ॥' [ ] निवृत्तिके अनेक प्रकार हैं क्योंकि शक्तिके अनुसार धारण किया गया व्रत यदि सुखपूर्वक पाला जाता है तो वह कल्याणकारी होता है। उन हिंसा आदिकी विरतिके भंग कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, कायके संयोगसे ४९ होते हैं। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-१. मनसे हिंसा नहीं करता। २. वचनसे हिंसा नहीं करता। ३. कायसे हिंसा नहीं करता। ४. मन और वचनसे हिंसा नहीं करता। ५. मन और कायसे हिंसा नहीं करता। ६. वचन और कायसे हिंसा नहीं करता। ७. मन, वचन और कायसे हिंसा नहीं करता। ये स्वयं न करनेकी अपेक्षा सात भंग होते हैं। इसी तरह न कराने और न अनुमति देनेकी अपेक्षा भी सात-सात भंग होते हैं। १. मनसे न हिंसा करता है और न कराता है। २. वचनसे न हिंसा करता है और न कराता है। ३. कायसे हिंसा न करता है न कराता है। ४. मन और वचनसे न हिंसा करता है न कराता है। ५. मन और कायसे हिंसा न करता है न कराता है । ६. वचन और कायसे हिंसा न करता है न कराता है। ७. मन, वचन, कायसे हिंसा न करता है न कराता है। ये करने और न करानेकी अपेक्षा सात भंग होते हैं । इसी तरह न करने और न अनुमति देनेकी अपेक्षा भी सात भंग होते हैं, न कराने और न अनुमति देनेकी अपेक्षा भी सात भंग होते हैं, तथा न करना, न कराना और न अनुमति देनेकी अपेक्षा भी सात भंग होते हैं। ये सब मिलकर ४९ होते हैं। चूँकि त्याग तीनों कालोंको लेकर किया जाता है जो भूतकालमें पाप किये हैं उनकी निन्दा की जाती है, जो वर्तमानमें सम्भव हैं उन्हें रोका जाता है और जो भावी हैं उन्हें त्यागा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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