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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) १४९ स्थूलहिंसादिनिवृत्त्या संपद्यन्ते तानि मध्यमवृत्त्याणुव्रतानि अभिमन्यन्ते । तस्यापत्यादिभिः हिंसादिकरणे तत्कारणे वा अनुमतेरशक्यप्रतिषेधत्वात् । स एव द्विविधत्रिविधाख्यः स्थूलहिंसादिविरतिभङ्गो बहुविषयत्वाच्छ्र यान् । 'अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ।'[ ] इत्यन्यैरप्यभिधानाच्च । यथाह 'द्विविधा त्रिविधेन मता विरतिहिंसादितो गृहस्थानाम् । त्रिविधा त्रिविधेन मता गृहचारकतो निवृत्तानाम् ॥' [ अमि. श्रा. ६।१९ ] अपिशब्दः प्रकारान्तरेणापि स्थूलहिंसादिनिवृत्तेरणुव्रतत्वख्यापनार्थम् । शक्त्या हि व्रतं प्रतिपन्नं सुखनिर्वाहं श्रेयोऽथं च स्यात् । यन्नीति:'तव्रतमायितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहतः शरीरमनसी।' [ नीतिवा. ११९] इति तथैव ठक्कुरोऽप्यपाठीत 'कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा। औत्सगिकी निवृत्तिविचित्ररूपापवादिको त्वेषा ।' [ पुरुषार्थ. ७६ ] तद्विरतिभङ्गाः करणत्रिकेण योगत्रिकेण च विशेष्यमाणा एकोनपञ्चाशद् भवन्ति । यथा--हिंसां न १५ करोति मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन ६ मनसा वाचा कायेन ७ एते करणेन सप्त भङ्गाः। एवं कारणेन सप्त । अनुमत्यापि सप्त । तथा हिंसां न करोति न कारयति च मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन ६ मनसा वाचा कायेन ७। एते करण- १४ कारणाभ्यां सप्त । एवं करणानुमतिभ्यां सप्त । कारणानुमतिभ्यामपि सप्त । करणकारणानुमतिभिरपि सप्त । विशेषार्थ-जैनधर्ममें जीवोंके दो भेद किये हैं-त्रस और स्थावर । स जीव स्थूल होनेसे चलते-फिरते दृष्टि गोचर होते हैं उनकी हिंसाको स्थूल हिंसा कहते हैं और उसके त्यागको अहिंसाणुव्रत कहते हैं। स्नेह और मोह आदिके वशीभूत होकर ऐसा झूठ बोलना जिससे कोई घर उजड़ जाये या गाँव ही नष्ट हो जाये, उसे स्थूल असत्य कहते हैं और उसका त्याग दूसरा सत्याणुव्रत है। जिससे दूसरेको कष्ट हो और राजदण्डका भय हो ऐसी दूसरेकी वस्तुको ले लेना स्थूल चोरी है और उसका त्याग तीसरा अचौर्याणुव्रत है। परस्त्री और वेश्यासे सम्भोग न करना चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन, धान्य, जमीनजायदाद आदिका इच्छानुसार परिमाण करना पाँचवाँ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत है। ये स्थूल हिंसा आदि मनसे, वचनसे, कायसे तथा कृत कारित और अनुमोदनासे किये जाते हैं । अतः जो श्रावक गृहवाससे निवृत्त हो गया है वह मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनासे पाँचों स्थूल हिंसा आदिका त्याग करता है। ये उत्कृष्ट अणुव्रत कहे जाते हैं। किन्तु जो श्रावक घरमें रहता है वह अनुमोदना सम्बन्धी तीन विकल्पोंको छोड़कर शेष छह विकल्पोंसे ही स्थूल हिंसा आदिका त्याग करता है। उन्हें मध्यम अणुव्रत कहते हैं। क्योंकि घरमें रहनेवाले श्रावकके पुत्र-पौत्रादि जो हिंसा आदि करते या कराते हैं उनकी अनुमतिसे वह नहीं बच सकता, उनमें उसकी अनुमति होती है। इस प्रकार स्थूल हिंसा आदिकी १. त्रिविधा द्विविधन-अमि. श्रा. । १. मा चरितव्यं-नीतिवा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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