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________________ ३ १२ धर्मामृत ( सागार) अणुव्रतं - महाव्रतापेक्षया लघुव्रतमहंसादि । अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते । क्वचित्तु रात्र्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते । यथाह चारित्रसारे— १४८ ] गुणव्रतं - गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थं व्रतं दिग्विरत्यादीनामणुव्रतानुबृंहणार्थत्वात् । शिक्षाव्रतं - ६ शिक्षायै अभ्यासाय व्रतम् । देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । अत एव गुणव्रतादस्य भेदः । गुणव्रतं हि प्रायो यावज्जीविकमाहुः । अथवा शिक्षा - विद्योपदानम् । शिक्षा प्रधानं व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिकादेविशिष्टश्रुतज्ञानभावना परिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात् । उत्तरे - मूलगुणानन्तरसेव्यत्वादुत्कृष्टत्वाच्च । ९ तदुक्तम् १५ 'बधादसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम् | पञ्चधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥' [ 'मद्यादिभ्यो विरतैव्रतानि कार्याणि भक्तितो भव्यैः । द्वादश तरसा छेत्तुं शस्त्राणि सितानि भववृक्षम् ॥' [ अमि श्रा. ६ | १ ] ॥४॥ अथ सामान्येन पञ्चाणुव्रतानि लक्षयन्नाह - वितिः स्थूलबधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः । क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः ॥५॥ विरतिरित्यादि । स्थूलजीवादिविषयत्वान्मिथ्यादृष्टीनामपि हिंसादित्वेन प्रसिद्धत्वाद्वा । स्थूलबधादि : -- स्थूलहिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा इत्यर्थः । ततो मनसा वचसा कायेन च पृथक्करणकारणानुमननेनिवृत्तिरहिंसा सूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाख्यानि पञ्चाणुव्रतानि क्वचिद् गृहवासनिवृत्ते श्रावके भवेयुरित्युत्कर्ष४८ वृत्त्याणुव्रतान्युपदिश्यन्ते । यानि त्वपरे गृहवासनिरते श्रावके अननुमतैरनुमतिविवर्जितैर्मनस्करणादिभि: षड्भिः विशेषार्थ - महात्रतकी अपेक्षा लघु अहिंसादि व्रतोंको अणुव्रत कहते हैं। हिंसा आदि पाँचों पापोंके सर्वदेश त्यागको महाव्रत और एकदेश त्यागको अणुव्रत कहते हैं । अणुव्रत पाँच हैं | चारित्रसारमें रात्रिभोजन त्यागको छठा अणुव्रत कहा है किन्तु बहुमत से अणुव्रत पाँच ही हैं । गुणत तीन हैं। गुणका अर्थ है उपकार । जो व्रत अणुव्रतोंका उपकार करते हैं, उनकी वृद्धि आदि में सहायक होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं । तथा जो व्रत शिक्षा अर्थात् अभ्यासके लिए होते हैं उन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं क्योंकि इनका अभ्यास प्रतिदिन किया जाता है । इसी कारण से गुणव्रतों से शिक्षाव्रत में भेद हैं। क्योंकि गुणव्रत प्रायः जीवनपर्यन्त होते हैं । अथवा शिक्षाप्रधान व्रतको शिक्षाव्रत कहते हैं । अर्थात् जो विशिष्ट श्रुतज्ञान भावनारूप परिणत होते हैं वे ही शिक्षा व्रतोंका निर्वाह कर सकते हैं। ये चार हैं । इस तरह श्राबकोंके बारह उत्तरगुण हैं । गुण कहते हैं संयम के भेदोंको। ये मूलगुणोंके पश्चात् पाले जाते हैं इसलिए और उत्कृष्ट होनेसे उत्तरगुण कहलाते हैं । आचार्य अमितगतिक है - 'मद्य आदिके त्यागी भव्यको बारह व्रत पालने चाहिए। ये संसारवृक्षको छेदनेके लिए तीक्ष्ण शस्त्र हैं ||४|| Jain Education International सामान्य से पाँच अणुव्रतों का लक्षण कहते हैं - गृहत्यागी श्रावकमें मन, वचन, काय और उनमें से प्रत्येकके कृत, कारित, अनुमोदना, इस प्रकार नौ भंगोंके द्वारा स्थूल हिंसा आदिका त्याग पाँच अहिंसा आदि अणुव्रत होते हैं । और घरमें रहनेवाले श्रावकमें अनुमोदनाको छोड़कर शेष छह भंगोंके द्वारा स्थूल हिंसा आदिक त्यागरूप पाँच अहिंसा आदि अणुव्रत होते हैं ||५|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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