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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय)
१४७ 'निःशल्यो व्रती',-[तत्त्वा. सू. ७।१८] । अत्रेयं भावना, 'शल्यापगमे सत्येव व्रतसंबन्धाद् व्रती मन्यते न हिंसाधुपरतिमात्रव्रतसंबन्धात् । यथा बहक्षीरघृतो गोमानिति व्यपदिश्यते । बहुक्षीरघुताभावात् सतीष्वपि गोषु न गोमान् । तथा सशल्यात् सत्स्वपि व्रतेषु न व्रती । यस्तु निःशल्यः स व्रतीति ।'-[सर्वार्थ. ७।१८]।
उद्धरेत्-निष्काशयेत् । हृदः-हृदयात् ॥२॥ अथ शल्यसहचारीणि व्रतानि धिक्कुर्वन्नाह
आभान्त्यसत्यदृङ्मायानिदानैः साहचर्यतः।
यान्यव्रतानि व्रतवद् दुःखोदर्काणि तानि धिक् ॥३॥ दुःखोदर्काणि-दुःखमुदकं उत्तरफलं येषां, मिथ्याव्रतानां सुरनरतिर्यग्भवकिंचित्सुखसंपादनपूर्वकदुर्वारदुर्गतिदुःखानुबन्धनिबन्धनत्वात् ।।३॥ अथोत्तरगुणनिर्णयार्थमाह
पञ्चधाऽणुवतं त्रेधा गुणवतमगारिणाम् ।
शिक्षाव्रतं चतुर्धेति गुणाः स्युदिशोत्तरे ॥४॥ विशेषार्थ-तत्त्वार्थ सूत्रमें (७/१८) निःशल्यको व्रती कहा है। उसकी टीका सर्वार्थसिद्धिमें यह शंका की गयी है कि शल्यका अभाव होनेसे निःशल्य और व्रत धारण करनेसे व्रती होता है, निःशल्यसे व्रती कैसे हो सकता है ? क्या देवदत्त दण्ड हाथमें लेनेसे छातेवाला हो सकता है ? इसके समाधानमें कहा है कि व्रती होनेके लिए दोनों बातोंका होना आवश्यक है। यदि शल्योंका अभाव न हो तो केवल हिंसा आदिके त्याग करनेसे व्रती नहीं होता। शल्योंका अभाव होनेपर व्रत धारण करनेसे व्रती होता है। जैसे जिसके घर बहुत दूध-घी होता है उसे गोमान् कहते हैं। बहुत दूध-घी न होनेपर बहुत-सी गाय होते हुए भी गोमान् नहीं कहते । उसी तरह यदि शल्य हैं तो व्रत धारण करनेपर भी व्रती नहीं है ॥२॥
आगे शल्यके सहचारी व्रतोंकी निन्दा करते हैं
मिथ्यात्व, मायाचार और निदानके साथ होनेसे जो अव्रत व्रतकी तरह प्रतीत होते हैं; उनका उत्तरफल दुःख ही है, उन व्रताभासोंको धिक्कार है ॥३॥
विशेषार्थ-जिसको सात तत्त्वोंकी और देव शास्त्र गुरुकी यथार्थ प्रतीति नहीं है, भले ही वह जन्मसे जैन हो और स्वर्गोंके लोभसे व्रत धारण किये हो, फिर भी वह शास्त्रानुसार व्रती, श्रावक या साधु नहीं है। और ऐसे व्रतोंसे आगामी जन्ममें दुःख ही भोगना पड़ता है ॥३॥
अब श्रावकके उत्तरगुण कहते हैं
पाँच प्रकारका अणुव्रत, तीन प्रकारका गुणव्रत और चार प्रकारका शिक्षाव्रत, ये गृहस्थोंके बारह उत्तरगुण होते हैं ॥४॥
१. 'पंचवणव्वयाइं गणव्वयाई हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं॥'-चरित्त
पाहुड़, गा. २। 'गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम्' ।- रत्न. श्रा., ५१ श्लो.। 'अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिःप्रकारगुणवतम् । शिक्षात्रतानि चत्वारि इत्येतद्द्वादशात्मकम् ।।'-वरांग चरित १५।१११। 'व्रतान्यणूनि पञ्चषां शिक्षा चोक्ता चतुर्विधा । गुणास्त्रयो यथाशक्ति नियमास्तु सहस्रशः ॥'-पद्म पु. १४६१८३। पद्म. पंञ्च.६।२४। अमित. श्रा. ६॥२॥
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