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________________ १४६ धर्मामृत ( सागार) ___ शल्यान्निष्क्रान्तो निःशल्यः । ननु च 'सम्पूर्ण दृग्मूलगुण' इत्यनेनैव शल्यपरिहारस्य सिद्धत्वाद् व्यर्थमिदमिति चेत्, सत्यं, किन्त्वचिरप्रतिपन्नव्रतस्य पूर्वविभ्रमसंस्कारोपरोप्यमाणतत्परिणामानुसरणनिवारणार्थ ३ भयो यत्नः क्रियते । उपदेशे च पौनरुक्त्यं न दोषः । यदाह 'सज्झाय जाण तवओ सहेसु उवएसु थुइपयाणेसु । सत्तगुणकित्तणासु य ण हुँति पुणरुत्तदोसाओ॥ [ अक्षुणान् ----निरतिचारान् । उक्तं च 'निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ वतिनां मतो व्रतिकः ॥' [ रत्न. श्रा. १३८ ] ॥१॥ अथ शल्यत्रयोद्धरणे हेतुमाह सागारो वाऽनगारो वा यनिःशल्यो व्रतीष्यते । तच्छल्यवत्कुदृङ्मायानिदानान्युद्धरेद्धृदः ॥२॥ गुरुके विषयमें विपरीत अभिप्रायको मिथ्यात्व कहते हैं। ठगनेको माया कहते हैं । तप संयम आदिके प्रभावसे होनेवाली इच्छा विशेषको निदान कहते हैं। निदान प्रशस्त भी होता है और अप्रशस्त भी होता है। प्रशस्त निदानके भी दो भेद हैं-एक मुक्ति निमित्त प्रशस्त निदान और दूसरा संसार निमित्त प्रशस्त निदान । कर्म क्षय आदिकी इच्छा करना मक्ति निमित्त निदान है और जैन धर्मकी सिद्धिके लिए उच्च जाति आदिकी इच्छा करना संसार निमित्त प्रशस्त निदान है। आचार्य अमितगतिने कहा है-कर्मोका अभाव, संसारके दुःखकी हानि, दर्शन ज्ञानरूप बोधि, तपरूप समाधि, या समाधिपूर्वक मरण और केवलज्ञानकी सिद्धिको चाहना मुक्ति हेतु निदान है। जिनधर्मकी सिद्धिके लिए जाति, कुल, बन्धुबान्धवोंका अभाव और दरिद्रपनेको चाहना संसार हेतु निदान है। क्योंकि संसारके बिना जाति आदिकी प्राप्ति नहीं होती। और संसार दुःखोंका घर है । अप्रशस्त निदानके दो भेद हैं-एक भोगके लिए और दूसरा मानके लिए। पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषा भोगार्थ निदान है। और अपनी प्रतिष्ठाकी चाहना मानार्थ निदान है। ये दोनों ही निदान संसारमें भटकानेवाले हैं। अतः संसारके निमित्त निदानकी तो बात ही क्या, मोक्षकी अभिलाषा भी मोक्षमें रुकावट पैदा करनेवाली है । इसलिए मुमुक्षुको अन्यकी अभिलाषा न करके अध्यात्ममें लीन होना चाहिए। यहाँ यह शंका हो सकती है कि सम्पूर्ण सम्यग्दर्शन और मूलगुण कहनेसे ही तीनों शल्योंका परिहार हो जाता है तब निःशल्य कहना व्यर्थ ही है। यह शंका उचित है, किन्तु जो नये व्रत धारण करता है उसको पुराने संस्कारवश कदाचित् परिणामोंमें कुछ विकृति हो सकती है। उसीके निवारणके लिए यह कहा है क्योंकि उपदेशमें पुनरुक्तिको दोष नहीं माना जाता। कहा है-'स्वाध्यायमें, ज्ञानार्जनमें, तपमें, उपदेशमें, स्तुतिपदोंमें और गुणकीर्तनमें पुनरुक्तिको दोष नहीं माना है।' ॥१॥ तीनों शल्योंको क्यों दूर करना चाहिए, यह बताते हैं यतः गृहस्थ हो या मुनि हो, जो निःशल्य होता है वही व्रती माना जाता है । इसलिए व्रतोंके अभिलाषीको शल्यकी तरह माया, मिथ्यात्व और निदानको हृदयसे निकाल देना चाहिए ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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