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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) अथ व्रतिकप्रतिमामध्यायत्रयेण प्रपञ्चयिष्यन् प्रथमं तावत्तल्लक्षणं संगृह्णन्नाह - संपूर्णदग्मूलगुणः निःशल्यः साम्यकाम्यया। धारयन्नुत्तरगुणानक्षूणान् वतिको भवेत् ॥१॥ शृणोति हिनस्तीति शल्यं शरीरानुप्रवेशिकाण्डादि । शल्यमिव शल्यं कर्मोदयविकारः शारीरमानसबाधाहेतृत्वात् । तत्त्रिविधं मायामिथ्यात्वनिदानभेदात् । तत्र मिथ्यात्वमाये बह्वपाये प्राग्व्याख्याते । निदानं तु तप:संयमाद्यनुभावेन काङ्क्षाविशेषः। तद् द्वेधा प्रशस्तेतरभेदात् । प्रशस्तं पुनर्द्वधं विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदात् । तत्र विमुक्तिनिमित्तं कर्मक्षयाद्याकाङ्क्षा । उक्तं च 'कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधि समाधिं जिनबोधसिद्धिम् । आकाङ्क्षतः क्षीणकषायवृत्तेविमुक्तिहेतुः कथितं निदानम् ॥' [ अमि. श्रा. ७।२१] ९ जिनधर्मसिद्धयर्थं तु जात्याद्याकाङ्क्षणं संसारनिमित्तम् । उक्तं च 'जाति कुलं बन्धुविवर्जितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्धये ।। प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं निदानम् ।।' [ अमित. श्रा. ७।२२] १२ अप्रशस्तमपि द्वधा भोगार्थमानार्थभेदात् । घातकत्वादिनिदानस्य मानार्थनिदानेऽन्तर्भावात् । तत्र विमुक्तिनिमित्तमप्यधस्तनभूमिकायामेव प्रशस्तं न पुनः संसारनिमित्तादित्रयं कदाचिदपि पारंपर्येण साक्षाच्च संसारदुःखानुबन्धनिमित्तत्वात् । यदाह 'मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी। यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुर्भवेत्किमन्यत्र कृताभिलाषः ॥ [ पद्म. पञ्च. १५५] आगे तीन अध्यायोंमें व्रत प्रतिमाका कथन करेंगे। सबसे प्रथम उसका लक्षण कहते हैं जिसका सम्यग्दर्शन और मूलगुण परिपूर्ण है, तथा जो माया मिथ्यात्व और निदान रूप तीन शल्योंसे रहित है, और इष्ट विषयों में राग तथा अनिष्ट विषयों में द्वेषको दूर करने रूप साम्य भावकी इच्छासे निरतिचार उत्तर गुणोंको बिना किसी कष्टके धारण करता है वह व्रतिक होता है ॥१॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन और मूल गुणोंका अन्तरंग आश्रय तो जीवका उपयोग मात्र है और बहिरंग आश्रय चेष्टामात्र है। दोनों ही आश्रयोंसे अतिचार न लगनेपर सम्यग्दर्शन और मूलगुण सम्पूर्ण या अखण्ड होते हैं। जब ये सम्पूर्ण हो जायें तभी श्रावक व्रत प्रतिमाका अधिकारी होता है । इसके साथ ही वह निःशल्य भी होना चाहिए। शरीरमें घुस जानेवाले कील-काँटोंको शल्य कहते हैं क्योंकि वह कष्ट देते हैं। उसी तरह कर्मके उदयसे होनेवाला विकार जीवको शारीरिक और मानसिक कष्ट देता है अतः उसे शल्यके समान होनेसे शल्य कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान । तत्त्व और देव शास्त्र सा.-१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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