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________________ १४४ धर्मामृत ( सागार) अथ प्रकृतमुपसंहरन् प्रतिकप्रतिमारोहणयोग्यतां चासूत्रयन्नाह दर्शनप्रतिमामित्थमारुह्य विषयेष्वरम् । विरज्यन् सत्त्वसज्जः सन् व्रती भवितुमर्हति ॥३२॥ विरज्यन्-स्वयमेव विरक्ति गच्छन् । सत्त्वसज्जः-सात्त्विकभावनिष्ठ इति भद्रम् ॥३२॥ इत्याशाधरदब्धायां धर्मामतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां द्वादशोऽध्यायः । भी सुपुत्रके बिना घरबार छोड़कर आत्मकल्याणमें नहीं लग सकता। अतः गृहस्थाश्रममें रहकर योग्य सन्तान पैदा करना चाहिए ॥३१॥ अब दर्शनप्रतिमाके कथनका उपसंहार करते हए जतिक प्रतिमा धारण करनेकी योग्यता बताते हैं___इस प्रकार श्रावक दर्शनप्रतिमाका पूर्ण रूपसे पालन करके स्त्री आदि विषयोंमें पाक्षिककी अपे पेक्षा और अपनी पहली अवस्थाकी अपेक्षा अधिक विरक्त तथा धीरता आदि सात्त्विक गुणोंसे युक्त होता हुआ व्रती होने के योग्य होता है ॥३२॥ इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागार धर्मको मव्यकुमुदचन्द्रिकाटीका तथा ज्ञानदीपिकापंजिकाकी अनुसारिणी हिन्दी टीकामें प्रारम्भसे बारहवाँ और सागार धर्मकी अपेक्षा तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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