SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय ) हृदयस्पन्दनं तन्द्रा तृड् ग्लानिर्लोमहर्षणम् । अव्यक्तं प्रथमे मासि सप्ताहात्कललं भवेत् ॥ गर्भः पुंसवनान्यत्र पूर्वं व्यक्तेः प्रयोजयेत् । बली पुरुषकारो हि देवमप्यतिवर्तते ॥ पुष्पे पुरुषकं मं राजतं वाऽथवायसम् । कृत्वाग्निवणं निर्वाप्य क्षीरे तस्याञ्जलिं पिवेत् ॥ गौरदण्डमपामागं जीवकर्षभकसैर्यकान् । पिवेत् पुष्ये जले पिष्टानेकद्वित्रिः समस्तशः ॥ क्षीरेण श्वेतबृहतीमूलं नासापुटे स्वयम् । पुत्रार्थं दक्षिणे सिञ्चेद्वामे दुहितृवाञ्छया || उपचारः प्रियहितैर्भर्त्रा भृत्यैश्च गर्भधृक् ।' [ अष्टांगहृ ११२८ ] इत्यादि । आचारे - कुललोकसमयव्यवहारे । त्रातुं - रक्षितुं निर्वर्तयितुमित्यर्थः ॥ ३०॥ अथ सत्पुत्ररहितेन श्रावकेणोत्तरपदं प्रति प्रोत्साहो दुष्करः स्यादिति दृष्टान्तेनोपष्टम्भयन्नाचष्टे - विना सुपुत्रं कुत्र स्वं न्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्यं गणिवत् प्रोत्सहेत परे पदे ॥३१॥ परे पदे - व्रतक प्रतिमायाम् । वानप्रस्थाद्याश्रमे वा । पक्ष - आत्मसंस्कारादौ मोक्षे वा ॥ ३१ ॥ १४३ करके पतिके समान पुत्रकी इच्छा करते हुए सबसे प्रथम पतिका मुख देखना चाहिए । ऋतुकाल बारह दिनका होता है । उसमें पहली तीन रात्रियाँ तथा ग्यारहवीं रात्रि निन्दनीय है । शेष रात्रियों में से सम संख्यावाली रात्रियों में समागम करनेसे पुत्र और विषम संख्यावाली रातों में समागम करनेसे पुत्री पैदा होती है । यह पुत्रोत्पादनकी प्राचीन आयुर्वेद सम्म विधि है । इसका ज्ञान विवाहसे पूर्व करा देना उचित है ||३०|| सुपुत्र के बिना श्रावकको आगेकी प्रतिमाओंको धारण करनेका उत्साह नहीं होता, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं उत्तम शिष्य के बिना धर्माचार्यकी तरह अपने समान योग्य पुत्रके बिना दर्शनिक श्रावक अपने परिवार आदिका भार किसपर रखकर निराकुलतापूर्वक आगेकी प्रतिमाओंको या मुनिपदको धारण करने में उत्साहित हो सकता है ||३१|| Jain Education International विशेषार्थ - वैदिक धर्म में कहा है कि पुत्रके बिना सद्गति नहीं होती क्योंकि मरने पर जब पुत्र पिण्डदान करता है तब उसके पूर्वज प्रेतयोनिसे निकलते हैं । किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं है । अपनी गति अपने हाथ में है पुत्रके हाथमें नहीं है। फिर भी सद्गतिके लिए गृह त्यागकर धर्माराधन करना आवश्यक होता है । और यह तभी सम्भव है जब घरका भार उठाने में समर्थ सुपुत्र हो । इसलिए धर्मसाधन के लिए सुपुत्रकी आवश्यकता है । जैसे संघ के अधिपति आचार्य जब संघके उत्तरदायित्व से मुक्त होकर विशेष आत्मकल्याण में लगना चाहते हैं तो किसी योग्य शिष्यको आचार्य पद प्रदान करके उसपर संघका भार सौंप देते हैं । यदि कोई ऐसा शिष्य न हो तो आचार्य जीवनपर्यन्त संघके भार से मुक्त नहीं हो सकते । और ऐसी स्थितिमें वे अपना विशेष कल्याण नहीं कर सकते । इसी तरह गृहस्थ For Private & Personal Use Only ३ ६ १२ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy