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________________ १३८ धर्मामृत ( सागार ) स्त्रीणां पत्युरुपेक्षैव परं वैरस्य कारणम् । तन्नोपेक्षेत जातु स्त्री वाञ्छन् लोकद्वये हितम् ॥२७।। उपेक्षव न वैरूप्यनिर्धनत्वादि ॥२७॥ अथ 'कुलस्त्रियापि धर्मादिकमिच्छन्त्या भर्तुश्छन्दानुवृत्तिरेव कर्तव्या' इति प्रासङ्गिकी स्त्रियाः शिक्षा प्रयच्छन्नाह नित्यं भर्तृमनीभूय वर्तितव्यं कुलस्त्रिया। धर्मश्रीशमंकीत्येककेतनं हि पतिव्रताः॥२८॥ केतनं गृहं ध्वजा वा । यन्मनुः 'पति या नातिचरति मनोवाक्कायकर्मभिः । सा भर्तृलोकानाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ।। व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री 'लोकान् प्राप्नोति निन्दितान् । शृगालयोनि चाप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ।।' [ मनुस्मृ. ५।१६५, १६४ ] ॥२८॥ अथ कुलस्त्रियामप्यासक्ति निषेधयन्नाह भजेद्देहमनस्तापशमान्तं स्त्रियमन्नवत् । क्षीयन्ते खल धर्मार्थकायास्तदतिसेवया ॥२९॥ स्पष्टम् ॥२९॥ पतिकी उपेक्षा ही स्त्रियोंके अत्यधिक वैरका कारण है। इसलिए इस लोक और परलोकमें सुख और सुखके कारणोंके चाहनेवाले श्रावकको अपनी स्त्रीकी कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ॥२७॥ आगे प्रसंगवश स्त्रीको शिक्षा देते हैं कि उसे पतिकी इच्छाके अनुकूल बर्ताव करना चाहिए कुलीन स्त्रियोंको सदा पतिके मनके अनुकूल व्यवहार करना चाहिए; क्योंकि पतिव्रता स्त्रियाँ धर्म, लक्ष्मी, सुख और यशकी एकमात्र ध्वजा होती हैं ॥२८॥ विशेषार्थ-मनुस्मृतिमें भी कहा है-'जो स्त्री मन-वचन-कर्मसे पतिकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करती वह स्वर्गलोकको पाती है और सब उसे साध्वी कहते हैं । जो इसके विपरीत आचरण करती है वह लोकमें निन्दा पाती है और मरकर शृगाल योनिमें जाती है तथा पापसे पीड़ित रहती है' ॥२८॥ धर्म, अर्थ और कामके इच्छुक श्रावकको अपनी धर्मपत्नीमें भी अति आसक्ति करनेका निषेध करते हैं दर्शनिक श्रावकको शारीरिक और मानसिक सन्तापकी शान्तिपर्यन्त ही स्त्रीको अन्नकी तरह सेवन करना चाहिए। अन्नकी तरह स्त्रीका भी अतिमात्रामें उपभोग करनेसे धर्म, धन और शरीर नष्ट हो जाते हैं ॥२९|| विशेषार्थ-विवाह यथेच्छ कामसेवनका लाइसेंस नहीं है, किन्तु विषयासक्तिको सीमित करनेका साधन है। अतः अपनी पत्नीका उपभोग भी अन्नकी ही तरह करना चाहिए । जैसे भूख लगनेपर ही पाचनशक्तिके अनुसार भोजन करना उचित होता है वैसे १. 'लोके प्राप्नोति निन्द्यताम्'- मनुस्मृ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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