SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय ) १३७ अथ धर्मे पत्न्याः सुतरां व्युत्पादनविधिमुपदिशति व्युत्पादयेत्तरां धर्म पत्नी प्रेम परं नयन् । सा हि मुग्धा विरुद्धा वा धर्माद् भ्रंशयतेतराम् ॥२६॥ व्युत्पादयेत्तराम्-अर्थादिव्युत्पाद्याद्धर्मेऽतिशयेन व्युत्पन्नां कुर्यात् । यदाह 'कुलीना भाक्तिका शान्ता धर्ममार्गविचक्षणा। एकैव विदुषा कार्या भार्या स्वस्य हितैषिणा ।।' [ अथवा धर्मविषये सर्वमपि परिवारजनं च पत्नी च व्युत्पादयन् पत्नी ततोऽतिशयेन तत्र व्युत्पादयेदिति व्याख्येयम् । 'सा हि' इत्यादि । इदमत्र तात्पर्य धर्ममजानानो विरक्तश्च परिजनो नरं धर्मात्प्रच्यावयति । ततोऽप्यतिशयेन तादृग्विधा गृहिणी तदधीनत्वाद् गहिणो धर्मकार्याणाम् । यदाह मनुः 'अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्च ह ॥' [ मनुस्मृ. ९।२८ ] ॥२६॥ अथ 'प्रेम परं नयन्' इत्यस्य समर्थनार्थमाहयही बात यहाँ भी कही गयी है। जैसे लोकमें सूतक माननेका चलन है तो उसे मानना चाहिए । विवाह कार्यमें बहुत-से लोकाचार चलते हैं। उन्हें गृहस्थ करता है। किन्तु यदि कहीं कुदेव पूजाका चलन हो तो श्रावक उसे नहीं करता। जैसे दीवालीके अवसरपर पूजनमें लक्ष्मी और गणेशका पूजन जैन गृहस्थ नहीं करते। इसी तरह होलिका दहनमें सम्मिलित नहीं होते । शीतलाका प्रकोप होनेपर शीतला देवीकी आराधना नहीं करते। अन्य भी लोक प्रचलित मिथ्यात्व श्रावक नहीं करता। शासन देवताओंकी आराधना भी उसीमें सम्मिलित है ॥२५॥ धर्मके विषयमें पत्नीको स्वयं शिक्षित करनेकी विधि कहते हैं दर्शनिक श्रावकको अपने तथा धर्मके विषयमें उत्कृष्ट प्रेम उत्पन्न कराते हुए पत्नीको के सम्बन्धमें अधिक व्युत्पन्न करना चहिए। क्योंकि यदि वह धर्मके विषय में मूढ़ हो या धर्मसे द्वेष करती हो तो धर्मसे दूसरोंकी अपेक्षा अधिक भ्रष्ट कर देती है ॥२६॥ विशेषार्थ-पत्नीको धर्मके विषयमें अधिक व्युत्पन्न करना चाहिए। इससे दो अभिप्राय लिये गये हैं। एक, पत्नीको अर्थ और कामके विषयमें भी व्युत्पन्न करना चाहिए किन्तु धर्मके सम्बन्धमें उनसे भी अधिक व्युत्पन्न करना चाहिए। दूसरे, गृहस्थको अपने परिवारके सभी जनोंको धर्मका ज्ञान कराना चाहिए, किन्तु उनमें भी पत्नीको उनसे अधिक धार्मिक ज्ञान कराना चाहिए, क्योंकि पति-पत्नी गृहस्थाश्रमरूपी गाड़ीके दो पहिये हैं। गाड़ीका यदि एक भी पहिया खराब हुआ तो गाड़ी चल नहीं सकती। अतः यदि पत्नी धर्मसे द्वेष करनेवाली हुई तो वह समस्त परिवारकी अपेक्षा गृहस्थको धर्मसे अधिक च्युत कर सकती है क्योंकि गृहस्थका खान-पान, अतिथि-सत्कार आदि सब उसीपर निर्भर रहता है । कहा है-'अपना हित चाहनेवाले बुद्धिमान् गृहस्थको अपनी भार्याको कुलीन और धर्म मार्गमें विदुषी बनाना चाहिए ।।२६।। __ स्त्रीको बड़े प्रेमसे धर्ममें व्युत्पन्न करनेका समर्थन करते हैं सा.-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy