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________________ १३६ धर्मामृत ( सागार) व्रत्यते यदिहामत्राप्यपायावद्यकृत्स्वयम् । तत्परेऽपि प्रयोक्तव्यं नैव तद्वतशुद्धये ॥२४॥ व्रत्यते-संकल्पपूर्वक नियम्यते ॥२४॥ अथैवं प्रतिपन्नदर्शनस्य श्रावकस्य स्वप्रतिज्ञानिर्वाहार्थमुत्तरप्रबन्धेन शिक्षा प्रयच्छन्नाह अनारम्भवधं मुञ्चेच्चरेन्नारम्भमुधुरम् । स्वाचाराप्रातिलोम्येन लोकाचारं प्रमाणयेत् ।।२५।। अनारम्भवध-तपःसंयमादिसाधनतनुस्थित्यर्थायाः कृष्यादिक्रियाया अन्यत्र प्राणिहिंसाम् । एतेन यदुक्तं स्वामिसमन्तभद्रदेवै:-'दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि संगृहीतं तथाविधहिंसाविरतिविध्युपदेशेन पञ्चाणुवतानुसरणविधानोपदेशात् । उद्धरं-आत्मनिर्वाह्यभरम । परेण हि कृष्यादिक्रियां कारयतो द्वन्द्वलाघवान्न तादृशी प्रतिज्ञातधर्मकर्मानुष्ठाने गृहिणो विहंस्तता भवति यादृशी तामात्मना कुर्वतः सा स्यात द्वन्द्वावर्तविवर्तनात् । लोकाचारं-स्वामिसेवाकयविक्रयादिकम् ॥२५॥ उस व्रतकी शुद्धिके लिए उसका प्रयोग दूसरेमें भी नहीं करना चाहिए, ऐसा उपदेश इस लोकमें और परलोकमें सांसारिक अभ्युदय और मोक्षसे भ्रष्ट करनेवाली तथा निन्दनीय जिस वस्तुको स्वयं संकल्पपूर्वक त्यागा जाता है उस व्रतकी निर्मलताके लिए उस त्यागी हुई वस्तुका प्रयोग दूसरे पुरुषमें भी नहीं करना चाहिए॥२४॥ विशेषार्थ-जैसे यदि हमने बुरा जानकर रात्रिभोजनका या अभक्ष्य भक्षणका त्याग किया है तो दूसरोंको भी रात्रिभोजन और अभक्ष्य भक्षण नहीं कराना चाहिए ॥२४॥ इस प्रकार दर्शन प्रतिमाको स्वीकार करनेवाले श्रावकको अपनी प्रतिज्ञाके निर्वाह के लिए आगे शिक्षा देते हैं दर्शनिक श्रावकको तप संयम आदिके साधन शरीरकी स्थितिके लिए प्रयोजनीभूत कृषि आदि क्रियामें होनेवाली हिंसाके अतिरिक्त जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए। तथा ऐसा कृषि आदि आरम्भ नहीं करना चाहिए जिसका भार स्वयंको ही उठाना पड़े। और अपने द्वारा स्वीकृत व्रतोंको हानि न पहुंचाते हुए ही लोकाचार-नौकरी, लेन-देन आदि करना चाहिए ॥२५॥ विशेषार्थ-यहाँ जो कृषि आदि क्रियासे अन्यत्र जीव हिंसा न करनेका विधान किया है इससे स्वामि समन्तभद्राचार्यने जो दर्शनिकको 'तत्त्वपथगृह्यः' कहा है उसका संग्रह किया गया है । इस प्रकारकी हिंसाके त्यागके उपदेशसे पाँच अणुव्रतोंके अनुसरणके विधानका उपदेश दिया है । तथा अपने ही ऊपर जिसका पूरा भार हो ऐसा आरम्भ न करनेका जो उपदेश दिया है उसका कारण यह है कि दूसरेसे 'कृषि आदि करानेसे मनुष्यकी झंझटें कम होनेसे प्रतिज्ञात धर्म कर्मके अनुष्ठानमें वैसी बाधा नहीं पहुँचती जैसी स्वयं ही करनेसे पहुँचती है। तीसरी बात है लोकाचारकी। दर्शनिकको वही लोकाचार मानना चाहिए जिससे उसके द्वारा स्वीकृत व्रतोंमें हानि न पहुँचे। आचार्य सोमदेवने कहा है कि सभी जैनोंको वह लोकाचार मान्य है जिससे सम्यक्त्वमें हानि न हो और न व्रतोंमें दूषण लगे। १. 'सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रत दूषणम्॥-सो. उपा., ४८. श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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