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________________ १३५ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय) अथ चौर्यव्यसनव्रतमलोपदेशार्थमाह दायादाज्जीवतो राजवर्चसाद् गृह्णतो धनम् । दायं वाऽपह नुवानस्य क्वाचौर्यव्यसनं शुचि ॥२१॥ दायादात-दायं कूलसाधारणं द्रव्यमादत्त इति दायादो भ्रात्रादिः । अपहनवानस्य-भ्रात्रादिभ्योपलपतः ॥२१॥ अथ पापद्धि-विरत्यतीचारनिषेधार्थमाह वस्त्र-नाणक-पुस्तादि न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्त्यक्तपाद्धिस्तद्धि लोकेऽपि गहितम् ॥२२॥ वस्त्राणि-पञ्चरङ्गपटादीनि । नाणकानि-सीतारामटङ्कादीनि । पुस्तादीनि-लेप्यचित्रकाष्ठाश्मादि- . शिल्पानि । च्छिदादि-खण्डनावर्तनभञ्जनादि ॥२२॥ अथ परदारव्यसनव्रतदोषनिषेधार्थमाह कन्यादूषणगान्धर्व विवाहादि विवर्जयेत् । __ परस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिविधित्सया ॥२३॥ कन्यादूषणं-कुमार्या अभिगमनं स्वविवाहनार्थ दोषोद्भावनं वा। विवाहादि-आदिशब्देन झाटविवाहहठहरणादि । मद्य-मांस-व्यसननिवृत्त्योस्त्वतीचाराः प्रागेवोक्ताः ॥२३॥ इदानीं यतो लोकद्वयविरुद्धबुद्धया आत्मना विरतिः क्रियते परस्मिन्नपि तत्प्रयोगं तद्वतशुद्धयर्थ न विदध्यादित्यनुशास्ति चोरी व्यसन त्यागके अतीचार कहते हैं राजाके प्रतापसे जीवित दायादसे जो गाँव सोना आदि ले लेता है या अपने भाई वगैरह के हिस्सेको छिपा लेता है उस पुरुषका अचौर्य व्रत कैसे पवित्र रह सकता है ॥२१॥ विशेषार्थ-पैतृक सम्पत्तिके हिस्सेदार भाई वगैरहको दायाद कहते हैं। यदि किसी हिस्सेदारका हिस्सा न्यायालयसे झूठा मुकदमा जीतकर भी लिया जाता है तो चोरीका दोष अवश्य लगता है ॥२१॥ शिकार खेलनेके त्यागके अतीचार कहते हैं शिकारके त्यागी श्रावकको वस्त्र, ठप्पा तथा काष्ठ, पत्थर, दाँत, धातु आदिपर यह अमुक जीव है इस प्रकारसे स्थापित किये गये जीवोंका छेदन-भेदन आदि नहीं करना चाहिए; क्योंकि यह काम लोकमें भी निन्दनीय माना जाता है ॥२२॥ परस्त्री व्यसन त्यागके दोष बतलाते हैं परस्त्रीके त्यागीको परस्त्रीव्यसन त्याग व्रतको निर्दोष करनेकी इच्छासे कन्यादूषण और गान्धर्वविवाह आदि नहीं करना चाहिए ।।२३॥ विशेषार्थ-कुमारीके साथ रमण करना या उसके साथ अपना विवाह करानेके लिए उसे दूषण लगाना कन्या दूषण है। माता-पिता और बन्धु-बान्धवोंकी सम्मतिके बिना वधू और वर परस्परके अनुरागसे जो आपसमें सम्बन्ध कर लेते हैं उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं। आदि शब्दसे कन्याका हरण करके उसके साथ विवाह करना आदि लेना चाहिए। इन सब कार्योंसे परस्त्रीत्यागवतमें दूषण लगता है ।।२३।। मद्यव्यसन निवृत्ति और मांस व्यसन निवृत्तिके अतिचार पहले ही कह आये हैं। अब, इस लोक और परलोकका विरोधी जानकर जिस बातका स्वयं नियम लेते हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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