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धर्मामृत ( सागार) मनस्कार:-चित्तप्रणिधानम् । तमस्तरत्-मिथ्यात्वमतिक्रामत् । आख्यान्ति । यदाह-व्यस्यति प्रत्यावर्तयत्येनं पुरुषं श्रेयस इति व्यसन मिति । रसादि-आदिशब्देनाञ्जनगटिका-पादुका-विवरप्रवेशादि । ३ तत्सोदरी-दुरन्तदुष्कृतश्रेयःप्रत्यावर्तनहेतुत्वाविशेषात् ॥१८॥ अथ द्यूतनिवृत्त्यतिचारमाह
दोषो होढाद्यपि मनोविनोदाथं पणोज्झिनः । __हर्षामर्षोदयाङ्गत्वात् कषायो मंहसेऽञ्जसा ॥१९॥ होढा-परस्परस्पर्धया धावनादि। आदिशब्देन द्यूतदर्शनादि । अपि मनोविनोदाथ-मनोऽपि रमयितुं प्रयुज्यमानं दोषः किं पुनर्धनाद्यर्थम् । पणोज्झिनः-पणं द्यूतमुज्झयतीत्येवं व्रतस्य ॥१९॥ अथ वेश्याव्यसनातिचारनिवृत्त्यर्थमाह
त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्ति वृथाटयां षिङ्गसङ्गतिम् ।
नित्यं पण्याङ्गनात्यागी तद्गेहगमनादि च ॥२०॥ १२ तौर्यत्रिकासक्ति-गीतनृत्यादिवाद्येषु सेवानिर्बन्धम् । एतेन चैत्यालयादौ धर्मार्थ गीतश्रवणादिकं न
दोष इति लक्षयति । वृथाटयां-प्रयोजनं विना विचरणम् । गमनादि । आदिशब्देन संभाषणसत्कारादि ।॥२०॥ कल्याणमार्गसे भ्रष्ट कर देते हैं इसलिए विद्वान उन्हें व्यसन कहते हैं। जिनने उनका व्रत लिया है वे उन धुत आदि व्यसनोंकी बहिन रस आदिको सिद्ध करनेकी तत्परताको भी दूर करें अर्थात् उसका भी त्याग करें ॥१८॥
विशेषार्थ-व्यसन शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक अस् धातुसे बना है जिसका अर्थ होता है भ्रष्ट करना या गिराना। ये जुआ आदि मनुष्य को उसके कल्याणसे गिराते हैं। उसका कारण यह है कि इन व्यसनोंके सेवी व्यक्तियोंकी कषाय बड़ी तीव्र होती है और उसका निरन्तर उदय रहनेसे उनका मनोभाव बड़ा कठोर हो जाता है। उससे ही वे इन पापकार्यों में प्रवृत्त होते हैं। एक दृष्टिसे ये व्यसन बड़े प्रभावशाली होते हैं क्योंकि मिथ्यात्वमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि आत्माकी तो बात ही क्या, किन्तु मिथ्यात्वका अतिक्रमण करनेवाले आत्माको भी अपने जालमें फंसा लेते हैं इसीलिए इन्हें व्यसन कहते हैं। इनके छोटे भाई-बहन कुछ उपव्यसन भी हैं, जैसे स्वर्ण आदि बनानेकी ठगविद्या, या ऐसा अंजन जिसे लगानेसे अदृश्य हो जाये या ऐसी खड़ाऊँ बनावे कि जिससे जहाँ चाहे जा सके। इत्यादि कार्य भी व्यसनों की तरह ही घोर पापके कारण होनेसे मनुष्यको कल्याणमार्गसे भ्रष्ट करते हैं अतः हेय हैं । श्रावकको किसी भी प्रकारके व्यसनमें नहीं पड़ना चाहिए ॥१८॥
अब द्यूत त्यागके अतिचार कहते हैं
जुआ वगैरहके त्याग करनेवाले श्रावकको मनोविनोदके लिए भी परस्पर में स्पर्धासे दौड़ना वगैरह भी दोष है क्योंकि हारने पर क्रोध उत्पन्न होता है और जीतने पर प्रसन्नता होती है। हर्ष और क्रोध दोनों कषाय हैं और कषायसे पापबन्ध होता है ॥१९॥
विशेषार्थ-धनोपार्जनके लिए शर्त लगाकर दौड़ना आदि तो दोष है ही। मनके बहलावके लिए भी ऐसा करना बुरा है ।।१९।।।
वेश्याव्यसन त्यागके अतिचार कहते हैं
जिसने वेश्यासेवनका त्याग किया है वह गाने बजाने और नाचमें आसक्तिको, बिना प्रयोजन बाजारोंमें घूमनेको, व्यभिचारी पुरुषोंकी संगतिको तथा वेश्याके घर आनाजाना, उसके साथ वार्तालाप, उसका आदर-सत्कार आदि भी सदाके लिए छोड़ दे ॥२०॥
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