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________________ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय) १३३ धर्मतुजः-युधिष्ठिरस्य । चारोः-चारुदत्तनाम्नः । शिवस्य-शिवभूतिनाम्नः । घोरदुरितानि । उक्तं च 'जूदं मज्जं मंसं वेस्सा पारद्धि चोर परयारं। दुग्गइ गमणस्सेदाणि हेदुभूदाणि पावाणि ॥' [ वसु. श्रा. ५९] ॥१७॥ अथ व्यसनशब्दनिरुक्तिद्वारेण द्यूतादे?रदुरितश्रेयःप्रत्यावर्तनहेतुत्वं समर्थ्य तद्विरतस्य तत्समानफलत्वाद्धातुवादाद्युपव्यसनानामपि दूरपरिहरणीयतामुपदिशति जाग्रत्तीवकषायकर्कशमनस्कारापितैदुष्कृत चैतन्यं तिरयत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्रेयसः। पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तद्वतः कुर्वीतापि रसादिसिद्धिपरतां तत्सोदरों दूरगाम् ॥१८॥ जंगलमें तृण खाकर रहती है, उसका कोई रक्षक नहीं है । स्वभावसे ही डरपोक है, किसीको सताती नहीं। खेद है कि मांसके लोभी उस हरिणीका भी शिकार करते हैं। यदि हमें चींटी भी काटती है तो तलमला जाते हैं। किन्तु वनमें हरिणीको बाणसे बींध डालते हैं। कहावत है कि जो किसीको मारता है या ठगता है वह उसीके द्वारा मारा और ठगा जाता है। शिकारका शौक अत्यन्त क्रूर है। राजा ब्रह्मदत्त शिकार का प्रेमी था। प्रतिदिन वनमें शिकार खेलने जाता था। एक बार उस वनमें एक मुनिराज आ गये। उनके कारण राजाको शिकारमें सफलता नहीं मिली। एक दिन राजाने जब मुनि आहारके लिए गये उनकी शिला खूब गर्म करा दी। मुनि लौटकर उसपर बैठ गये। मुनिको तो केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई और राजा ब्रह्मदत्त मरकर नरकमें गया। छठा व्यसन परस्त्रीगमन है। परस्त्रीगामीको इसी जन्ममें सदा चिन्ता सताती रहती है कि कोई उसे देख न ले । प्रायः ऐसे लोग उस परस्त्रीके पति द्वारा मार डाले जाते हैं। रावणने सती सीताका हरण करके अपने जीवनके साथ सोनेकी लंकाको नष्ट कर दिया। परस्त्रीकी अभिलाषाके पापका यह फल है। अतः परस्त्रीसे सदा दूर रहना चाहिए । सातवाँ व्यसन चोरी है। चोर तो लोकमें ही निन्द्य होता है। धन मनुष्योंका प्राण है अतः जो किसीका धन हरता है वह उसके प्राण हरता है। शिवदत्त पुरोहितने अपनेको सत्यघोष नामसे प्रसिद्ध कर रखा था। एक बार एक सेठ कुछ रत्न उसे सौंपकर विदेश गया। विदेशसे लौटते हुए उसका जहाज डूब जानेसे वह निधन हो गया। उसने शिवभूतिसे अपने रत्न माँगे तो वह साफ मुकर गया और उसे पागल कहकर घरसे निकाल दिया। पीछे रानीके प्रयत्नसे राजाने उससे वे रत्न प्राप्त किये और शिवभूतिको देशसे निकाल दिया। ये सात तो मुख्य व्यसन हैं मगर व्यसनोंकी कोई गिनती नहीं है क्योंकि खोटे काम बहुत हैं। ये सभी व्यसन दुर्गतिके कारण हैं । प्रारम्भमें ये मीठे लगते हैं, किन्तु इनका परिणाम कटुक होता है। इसलिए जो अपना हित चाहते हैं उन्हें इन व्यसनोंसे दूर ही रहना चाहिए ॥१७॥ ___ अब व्यसन शब्दकी निरुक्तिके द्वारा द्यूत आदि महापापोंको आत्माके श्रेयसे दूर करनेवाला बतलाकर, जो उनके त्यागी हैं उन्हें उसीके समान फलवाले उपव्यसनोंको भी दूरसे ही त्यागनेका उपदेश देते हैं यतः निरन्तर उदयमें आनेवाले तीव्र क्रोधादि कषायोंके द्वारा कठोर हुए मनोभावोंसे किये गये पापोंसे मिथ्यात्वको भी परास्त करनेवाले चैतन्यको ढकनेवाले द्यूत आदि पुरुषको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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