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धर्मामृत ( सागार )
पापद्धर्या परदारतो दशमुखस्योच्चैरनुश्रूयते
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द्यूतादिव्यसनानि घोरदुरितान्युज्झेत्तदार्यस्त्रिधा ॥ १७॥
वेश्यासेवन से चारुदत्त सेठको, चोरी करनेसे शिवभूति ब्राह्मणको, शिकार खेलनेसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीको, परस्त्रीगमनकी अभिलाषासे रावणको बड़ी भारी विपत्ति भोगनी पड़ी, यह वृद्धपरम्परासे सुना जाता है । अतः दर्शनिक श्रावकको घोर पापके कारण द्यूत, मांस, मद्य, वेश्या, चोरी, शिकार, और परस्त्रीसेवनको मन, वचन, काय कृत कारित अनुमोदनासे छोड़ना चाहिए ॥१७॥
विशेषार्थ - पद्मनन्दि पंचविंशतिकामें ग्यारह प्रतिमाओंसे प्रथम सप्त व्यसन त्यागपर जोर दिया है। क्योंकि समस्त व्रतोंकी प्रतिष्ठा सप्त व्यसन त्यागपर ही निर्भर है। जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री ये सात व्यसन हैं । ये महापाप हैं। जुआ निन्दनीय है, सब व्यसनों में मुख्य है, समस्त आपत्तियोंका घर है, पापका कारण है, नरकके मार्गोंका मुखिया है । जो दुबुद्धि मनुष्य हैं वे ही इसे अपनाते हैं, विवेकी मनुष्य इसके पास भी नहीं जाते । यदि मनुष्य का मन जुए में न रमे तो उसका अपयश और निन्दा न हो, क्रोध और लोभकषाय उत्पन्न ही न हों, चोरी आदि अन्य व्यसन भी दूर ही रहें। क्योंकि समस्त दुर्व्यसनोंका यह जुआ ही मुखिया है । क्या महाभारत में युधिष्ठिरने कौरवोंके साथ जुआ खेलकर अपनी राज्य सम्पदा और द्रौपदी तकको नहीं हारा था और उसके कारण उसे वनवासका जीवन बिताकर घोर विपदाएँ नहीं सहनी पड़ी थीं। दूसरा व्यसन है मांस । मांस पशु पक्षियोंके घातसे उत्पन्न होता है। अपवित्र है, महापुरुष उसे छूते भी नहीं हैं, खाने की बात तो बहुत दूर है । हमारा कोई सम्बन्धी बाहर जाकर यदि नहीं लौटता तो हम विकल हो जाते हैं । और वही हम दूसरोंको मारकर खा जाते हैं यह कितने खेद की बात है । राजा बकको मांस बड़ा प्रिय था। एक बार उसके रसोइयेने अन्य मांस न मिलने से तुरन्तके मरे हुए बालकका मांस पकाकर उसे खिलाया । तबसे वह मनुष्य के मांसका लोलुपी हो गया । पता लगनेपर प्रजाने उसे गद्दीसे उतार दिया। तब वह मनुष्योंको पकड़कर खाने लगा और राक्षस कहा जाने लगा । अन्तमें वसुदेवने उसे मार डाला । तीसरा व्यसन मदिरापान है । मदिरा के व्यसनी न धर्मका साधन कर सकते हैं, न अर्थ और कामका साधन कर सकते हैं । वे निर्लज्ज होते हैं। उन्हें माता और पत्नीका भी विवेक नहीं रहता । बेहोश होकर मार्ग में गिर जाते हैं और कुत्ता उनके मुँह में पेशाब कर देता है। यादव इसी मदिरापान के कारण नष्ट हुए । उनकी द्वारिकापुरी द्वीपायनके कोपसे जलकर राख हो गयी । कुछ यादव कुमारोंने मदिरा पीकर द्वीपायनको त्रस्त किया था । उसीका फल उन्हें इस रूप में भोगना पड़ा। हरिवंश पुराणमें इसकी विस्तृत कथा वर्णित है । चतुर्थ व्यसन वेश्या है । वेश्या मांस खाती है, मद्य पीती है, झूठ बोलती है, केवल धनके लिए स्नेह करती है, नीचसे नीच पुरुष उन्हें भोगता है । इसीलिए शास्त्रकारोंने उन्हें धोबियोंके कपड़ा धोनेके पत्थरकी उपमा दी है। जैसे उसपर सभी प्रकार के कपड़े धोये जाते हैं वही स्थिति वेश्याओंकी है । चारुदत्त सेठ इसी वेश्या व्यसन में फँसकर अपनी समस्त सम्पत्ति गँवा बैठा था । तब वेश्याकी माताने उसे घर से निकाल दिया। घर में पत्नी और माता कष्ट से जीवन निर्वाह करती थीं। तब वह धनोपार्जनके लिए विदेश गया । वहाँ भी उसे बहुत कष्ट भोगना पड़ा । अतः वेश्या व्यसनसे बचना चाहिए । पाँचवाँ व्यसन शिकार खेलना है । बेचारी हरिणी
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