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________________ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय ) १२२ अथ मधुव्रतातिचारनिवृत्त्यर्थमाह प्रायः पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुवतविशुद्धये । वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती ॥१३॥ 'प्रायः', एतेन मधूक-भल्लातकपुष्पाणां शक्यशोधनत्वान्नात्यन्तं निषेधः । शुष्कत्वाच्च नागकेसरादीनामपि । वस्त्यादिषु-वस्तिकर्म-पिण्डप्रदान-नेत्राञ्जनसेचन-लूतानासादिषु । व्रती-मधु-मांस-मद्येभ्योऽतिशयेन विरतः ॥१३॥ अथ पञ्चौदुम्बरविरत्यतिचारपरिहारार्थमाह सर्व फलमविज्ञातं वार्ताकादि त्वदारितम् । तल्लादिसिम्बीश्च खादेन्नोदम्बरवती ॥१४॥ वार्ताकादि। आदिशब्देन कर्चर-बदर-पूगफलादि । भल्लादिशिम्बीः-भल्लराजमाषप्रमुखफलिकाः ॥१४॥ नहीं करना चाहिए क्योंकि अधिक काल बीतनेपर उसमें सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। कहा है-'जो भोजन अपना स्वभाव छोड़कर अन्य भावरूप हो गया है वह सब अनन्तकायिक होनेसे छोड़ देना चाहिए' ।।१२।। आगे मधुव्रतके अतीचारोंको दूर करनेके लिए कहते हैं मधुत्याग व्रतमें अतीचारसे बचनेके लिए प्रायः पुष्प नहीं खाना चाहिए। मधु, मांस और मद्यके सर्वथा त्यागीको बस्ति आदि कर्ममें भी मधु, मांस तथा मद्यका प्रयोग नहीं करना चाहिए ॥१३॥ विशेषार्थ-मधु या शहद फूलोंसे ही संचित होता है अतः फूलोंके भक्षणसे मधुत्यागनतमें दूषण लगता है । किन्तु 'प्रायः' शब्द देनेसे सभी पुष्प अभक्ष्य नहीं होते। पण्डित आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है कि मधूक (महुआ) और भल्लातक (भिलावा) के फूलोंका शोधन करना शक्य है इसलिए अत्यन्त निषेध नहीं है। इसी तरह नागकेसर आदिके फूल सूख जाते हैं। उन्हें काममें लिया जाता है। सम्भवतः फूलोंके अभक्ष्य होनेसे ही पूजनमें फूलोंके स्थानमें केसरिया चावलका प्रयोग किया गया है। जो वस्तु अभक्ष्य है वह भगवान्को कैसे चढ़ायी जा सकती है । तथा मधु आदिके व्रतीको मधु आदिका प्रयोग औषधीके रूप में भी नहीं करना चाहिए। बस्तिकमके लिए, नेत्रोंमें अंजनके रूपमें, मकड़ीके काटे आदिपर भी शहद वगैरहका प्रयोग त्याज्य है। ऐसी स्थितिमें स्वास्थ्य, इन्द्रियपुष्टि आदिके लिए उनका प्रयोग कैसे किया जा सकता है। यह 'अपि' शब्दसे आशय है ॥१३॥ आगे पाँच उदुम्बरोंसे विरतिके अतीचारोंको दर करनेके लिए कहते हैं पीपल आदिके फलोंके त्यागीको समस्त अनजान फल, बैंगन, कचरी, बेर आदि भीतर से देखे बिना, तथा उसी तरह अर्थात् अन्दरसे शोधे बिना उड़द, सेम आदि की फलियोंको नहीं खाना चाहिए ॥१४॥ विशेषार्थ-आचार्य हेमचन्द्रने भी अनजान फलको खानेका निषेध किया है और उसका कारण यह बतलाया है कि निषिद्ध या विषफलको खानेमें उसकी प्रवृत्ति न हो। क्योंकि अज्ञानवश निषिद्ध फल खानेसे व्रतभंग होता है । और विषफल खानेसे तो जीवन ही खतरेमें पड़ जाता है ॥१४॥ १. 'स्वयं परेण वा ज्ञातं फलमद्याद्विशारदः । निषिद्धे विषफले वा मा भूदस्य प्रवर्तनम् ॥'-योगशास्त्र ३।४७। सा.-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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