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धर्मामृत ( सागार) अथानस्तमितभोजनव्रतातिचारार्थमाह--
मुहर्तेऽन्त्ये तथाऽद्येऽह्नो वल्भानस्तमिताशिनः।
गदच्छिदेऽप्याम्रघृताधुपयोगश्च दुष्यति ॥१५॥ अनस्तमिताशिनः अनस्तमिते सूर्ये अश्नाति तद्वतः। आम्रधृताधुपयोगः-चूत-चार-चोचमोचादिफलानां घृतक्षीरेक्षुरसादीनां च सेवनम् ॥१५॥
रात्रिभोजनत्याग व्रतके अतीचार कहते हैं
सूर्योदयके रहते हुए ही भोजन करनेका नियमवाले मनुष्यको दिनके प्रथम तथा अन्तिम मुहूर्त में भोजन करना और रोग दूर करने के लिए आम्र, घृत आदिका सेवन करना दोष है ॥१५॥
विशेषार्थ-रात्रिभोजन त्यागका अर्थ है सूर्यके उदय रहते हुए ही भोजन करना। उसा भी सर्योदय हए जब एक महत हो जाये तब कुछ खान-पान करना चाहिए तथा सूर्यास्त होने में जब एक मुहूर्त शेष रहे तब बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि आदि और अन्तिम मुहूर्तमें सूर्यका प्रकाश मन्द होनेसे जीव-जन्तु भ्रमणशील रहते हैं। आदि और अन्तिम मुहूर्तमें भोजनकी बात तो दूर, रोग निवृत्तिके लिए भी आम्र, केला आदि फलोंका तथा घी, इक्षुरस, दूध आदिका सेवन करनेसे भी दोष लगता है। किन्तु उत्तरकालीन लाटी संहितामें छठी प्रतिमा रात्रिभोजनत्याग है। अतः दर्शनिकके लिए उसमें ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है। लिखा है-व्रतधारी नैष्ठिक श्रावकोंको मांसभक्षणके दोषसे बचनेके लिए रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिए । शायद आप कहें कि यहाँ रात्रिभोजनत्यागका कथन नहीं करना चाहिए क्योंकि छठी प्रतिमामें इसका त्याग कराया गया है। आपका कथन सत्य है। छठी प्रतिमामें सर्वात्मना रात्रिभोजनका त्याग होता है। यहाँ सातिचार त्याग होता है। अर्थात् यहाँ अन्न मात्र आदि स्थूल भोज्यका त्याग होता है किन्तु रात्रिमें जलादि या ताम्बूल आदिका त्याग नहीं होता। छठी प्रतिमामें ताम्बूल, जल आदि भी निषिद्ध हैं। प्राणान्त होनेपर भी रात्रिमें औषधि-सेवन नहीं किया जाता। शायद आप कहें कि दर्शनिक श्रावक रात्रिमें किसीको अन्नका भोजन करायेगा, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। एक कुलाचार भी होता है उसके बिना दर्शनिक नहीं होता। मांस मात्रका त्याग करके रात्रिमें भोजन न करना तो सबसे जघन्य व्रत है। इससे नीचे तो कुछ है ही नहीं। शायद कहें कि पाक्षिकके तो व्रत नहीं होते, केवल पक्ष मात्र होता है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो सर्वज्ञ भगवानकी आज्ञाको नहीं मानता वह पाक्षिक कैसे हो सकता है। सर्वज्ञकी आज्ञा है कि क्रियावान ही श्रावक होता है। जो निकृष्ट श्रावक है वह भी कुलाचार नहीं छोड़ता । यह सब लोकमें प्रसिद्ध है कि रात्रिमें दीपकके पास में पतंग आदि त्रस जीव गिरते ही हैं। और वे वायुके आघातसे मरते हैं। उनके कलेवरोंसे मिश्रित भोजन निरामिष कैसे हो सकता है। रात्रिभोजनमें उचित-अनुचितका भी विचार नहीं रहता। रात्रिमें मक्खी तक नहीं दिखाई देती तब मच्छरकी तो बात ही क्या है। इसलिए संयमकी वृद्धिके लिए रात्रि भोजन छोडना चाहिए । यदि शक्ति हो तो चारों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए, नहीं तो उनमें से १. 'निषिद्ध मन्नमात्रादि स्थूलभोज्यं व्रते दृशः । न निषिद्धं जलाद्यत्र ताम्बूलाद्यपि वा निशि ॥'
-लाटी सं., पृ. १९ ।
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