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धर्मामृत ( सागार) असंहृतचर्म-असंहृतं स्वस्वभावेनापरिणामितं चर्म येन तत् । उपलक्षणमेतत् । तेन तथाभूतं लवणाद्यपि । व्यापन्नं-कुथितं स्वादचलितमिति यावत् । उक्तं च
_ 'आहारो निःशेषो निजस्वभावान्यभावमुपयातः । योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्तव्यो दयालीद्वैः ॥ [ ]॥१२॥
मुस्लिम युगमें रची गयी लाटी संहितामें प्रकृत चर्चाका विस्तारसे वर्णन करते हुए कहा है'श्रावकको मद्य-मांस और मधका सेवन नहीं करना चाहिए।' इसपर यह शंका की गयी कि जैन लोग तो इनको खाते ही नहीं तब इसके कहने की क्या आवश्यकता है ? इसके समाधानमें कहा है कि साक्षात् तो नहीं खाते, किन्तु उसके कुछ अतीचार अनाचारके समान हैं, उन्हें छोड़ना चाहिए उनको गिनाना शक्य नहीं है। फिर भी व्यवहारके लिए कुछ कहते हैंचमड़ेके बरतनमें रखे घी-तेल-जल वगैरह नहीं खाने चाहिए क्योंकि चमड़ेके आश्रयसे त्रसकायके जीव हो जाते हैं। शायद कोई कहे कि हम कैसे जानें कि उसमें वे होते हैं या नहीं ? तो इसके उत्तरमें हमारा कहना है कि सर्वज्ञ देवने केवलज्ञानरूप चक्षसे देखकर ही ऐसा कहा है। अतः उसे मानना चाहिए। शायद इसपर भी कोई तर्क करें कि उनके खानेसे पाप होता है, इसमें क्या प्रमाण है ? किन्तु ऐसा तर्क करना उचित नहीं है क्योंकि जैनागममें मांस खानेवालेको अवश्य ही पापका भागी कहा है । अतः उसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। मूंग आदि अन्न, सोंठ आदि औषधी, शक्कर आदि खाद्य और ताम्बूल आदि स्वाद्य, दूध आदि पेय, तैलमर्दन आदि लेप ये चार प्रकारके आहार कहे हैं। आहारके लिए शुद्ध द्रव्य देख-भालकर ही काम में लेना चाहिए । ऐसा न करनेसे मांसभक्षणका दोष लगता है, क्योंकि उनमें त्रस जीव हो सकते हैं । घुना हुआ अन्न इसीसे अभक्ष्य कहा है। उसका आप कितना भी शोधन करें फिर भी उसमें त्रसजीवोंकी सम्भावना रहती ही है। जिस अन्नादिमें यह सन्देह हो कि इसमें त्रसजीव हैं या नहीं, उसे भी मनकी निर्मलताके लिए नहीं खाना चाहिए । जो निर्दोष और बिना घुना हो उसे भी अच्छी तरहसे शोध कर ही खाना चाहिए। शायद कोई कहें कि जो शुद्ध अन्न है उसे शोधनेकी क्या जरूरत है ? किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है । इसमें प्रमादका दोष लगता है। जितनी तरल वस्तुएँ हैं जैसे घी, तेल, दूध, पानी वगैरह, उन्हें मजबूत वस्त्रसे छानकर ही काममें लेना चाहिए। ऐसा न करनेसे मांसत्याग व्रतमें अतीचार लगता है क्योंकि उनमें मरे हुए त्रसजीवोंके कलेवर हो सकते हैं । यदि शोधन भी किया किन्तु प्रमादवश असावधानीसे किया तो वह बेकार होता है। इसलिए व्रतकी रक्षा और मांसभक्षणके दोषसे बचने के लिए अपने हाथों और अपनी आँखोंसे ही अन्न आदिका शोधन करना चाहिए। जैसे अपने लिए सुवर्ण खरीदनेवाला देख-भालकर खरीदता है वैसे हो व्रतीको सुनिरीक्षित आहार करना चाहिए। अज्ञानी साधर्मी और ज्ञानी विधर्मीके द्वारा शोधे हुए और पकाये हुए भोजनको भी व्रतीको नहीं खाना चाहिए। शायद कोई कहें कि अपने किसी परिचित साधर्मी या विधर्मी के द्वारा शोधित और पकाये गये भोजनमें क्या हानि है ? किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि किसीका अत्यधिक विश्वास व्रतकी हानि करनेवाला है। जिसका आचरण ठीक नहीं है और जो निर्दय है उसका संयममें अधिकार नहीं है। एक बार शोधनेपर भी यदि बहुत समय हो जाये तो उसे पुनः शोधन करके ही ग्रहण करना चाहिए। केवल अग्निसे पकाया गया अथवा घीसे मिश्रित बासी भोजन भी
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