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________________ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय) १२७ तादृशैः-मद्यादिभाभिः पुम्भिः। संसृजन्–संसर्ग कुर्वन् । भुक्त्यादौ-भोजनभाजनासनादौ । साकीति-वाच्यतासहिताम् । उक्तं च 'मद्यादि-स्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदमत्रादिसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ॥ कुर्वन्नतिभिः साधं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ॥ [ सो. उपा. २९७-२९८] ॥१०॥ अथैवं सामान्यं मूलव्रतातिचारनिवृत्तिमभिधाय मद्यव्रतातिचारनिवृत्त्यर्थमाह सन्धानकं त्यजेत्सवं दधि तक्रं यहोषितम् । काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥११॥ सर्व-एतेन काञ्जिकवटकादेरपि हेयत्वं दर्शयति । उक्तं च 'जायन्तेऽनन्तशो यत्र प्राणिनो रसकायिकाः । संधानानि न वल्भ्यन्ते तानि सर्वाणि भाक्तिकाः॥ [ द्वयहोषितं-अहोरात्रद्वयमतिक्रान्तम् । पुष्पितमपि-अपिशब्दाद् द्वयहोषितं च ॥११॥ अथ मांसविरत्यतीचारानाह चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च । सर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते ॥१२॥ चर्मस्थं-दृत्यादिस्थं जलं कुतुपादिस्थं च घृतादिकमुपयुज्यमानम् । एतेन खट्टिकादिस्थ-बडिकादिस्थचूतफलादीनां चर्मोपनद्धचालनी-शूर्पटिकाद्युपस्कृतकणिका दीनां च त्याज्यतामुपलक्षयति । उक्तं च 'दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चानतोचिताः ॥' [ सो. उपा. २९९ ] विशेषार्थ-मद्य-मांस आदि स्वयं न खाकर भी यदि मद्य-मांससेवी स्त्री-पुरुषोंके साथ खान-पान आदिका सम्बन्ध रखता है तो मद्य-मांसके सेवनका ही दोष लगता है। आचार्य सोमदेवने भी कहा है कि मद्य-मांसका सेवन करनेवाले लोगोंके घरों में खान-पान नहीं करना चाहिए । तथा उनके बरतनोंको भी काममें नहीं लाना चाहिए। जो मनुष्य मद्य आदिका सेवन करनेवाले पुरुषोंके साथ खान-पान करता है उसकी यहाँ निन्दा होती है और परलोकमें भी उसे अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती ॥१०॥ इस प्रकार सामान्यसे अष्टमूल गुणोंमें अतिचारकी निवृत्तिका कथन करके अब मद्य आदिके व्रतोंमें अतिचार दूर करनेका कथन करते हैं दर्शनिक श्रावक सभी प्रकारके अचार, मुरब्बोंको, दो दिन दो रातके वासी दही और मठेको तथा फफून्दी हुई और दो दिन दो रातकी बासी कांजीको भी त्याग दे। नहीं तो उसके सेवनसे मद्यव्रतमें अतिचार लगता है ॥११॥ मांस विरतिके अतिचारको दूर करनेके लिए कहते हैं चमड़ेकी मशकका जल और चमड़ेके कुप्पेमें रखा घी-तेल तथा चमड़ेसे ढका हुआ, या बँधा हुआ या फैलाया हुआ हींग और जिसका स्वाद बिगड़ गया है ऐसा समस्त भोजन खानेसे मांसत्याग व्रत में अतिचार लगता है ॥१२॥ विशेषार्थ-चमड़ेसे सम्बद्ध किसी भी वस्तुके खानेसे मांस-भक्षणका दोष लगता है। सोमदेव सूरिने भी मशकके पानी और चमड़ेकी कुप्पोंमें रखे घी-तेलका निषेध किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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