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________________ १२६ धर्मामृत ( सागार) उक्तं च 'कृषि वाणिज्यं गोरक्ष्यमुपायैर्गुणिनं नृपम् । ___लोकद्वयाविरुद्धां च धनार्थी संश्रयेत्क्रियाम् ॥' [ ] मतः-एवंभूतनयादिष्टः । एतेन नैगमनयादेशात्पाक्षिकस्यापि दर्शनिकत्वमनुज्ञातं स्यात् । ततो न 'श्रावकपदानि देवैरेकादशदेशितानि' इत्यनेन विरोधः स्यात् पाक्षिकस्य द्रव्यतो दर्शनिकत्वात् ॥८॥ अथ मद्यादिवतद्योतनाथं तद्विक्रयादिप्रतिषेधमाह मद्यादिविक्रयादीनि नार्यः कुर्यान्न कारयेत् । न चानुमन्येत मनोवाक्कायैस्तव्रतधुते ॥९॥ विक्रयादीनि-आदिशब्देन संधानसंस्कारोपदेशाधुपादानम् । तद्वतद्युते-मद्यविरत्याद्यष्टमूलगुणनिमलोकरणार्थम् ॥९॥ अथ यच्छीलनान्मद्यादिव्रतक्षतिः स्यात्तदुपदेशार्थमाह भजन मद्यादिभाजस्स्त्रोस्तादृशैः सह संसृजन् । भुक्त्यादौ चैति साकीति मद्यादिविरतिक्षतिम् ॥१०॥ गुणका पालन करता है किन्तु अतीचारोंकी ओर उसकी दृष्टि नहीं रहती। दर्शनिक श्रावक निरतिचार पालन करता है। उसका सम्यग्दर्शन भी निर्दोष और दृढ़ होता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें दर्शनिकको सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, संसार और शरीर एवं भोगोंसे विरक्त, पंचपरमेष्ठीको ही अपना एकमात्र शरण माननेवाला और तत्त्वपथका पक्षवाला कहा है । उसीका शब्दशः अनुसरण करते हुए पं. आशाधरजीने कथन किया है। रत्नकरण्डमें दर्शनिकके अष्ट मूलगण पालनकी कोई चर्चा नहीं है और न न्याय्य आजीविककी ही चर्चा है । ये दोनों बातें सम्भवतया 'तत्त्वपथगृह्य में समाविष्ट हैं। परमेष्ठीके चरणों में एकमात्र दृष्टिको स्पष्ट करते हुए पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है कि आपत्तियोंसे व्याकुल होनेपर भी दर्शनिक उसको दूर करनेके लिए कभी शासन देवता आदिकी आराधना नहीं करता । पाक्षिक कर भी लेता है यह बतलानेके लिए 'एक' पद रखा है ॥७-८|| मद्यत्याग आदि व्रतोंको निर्मल करनेके लिए मद्य आदिके व्यापारका भी निषेध करते हैं दर्शनिक श्रावक मद्यत्याग आदि आठ मूल गुणोंको निर्मल करनेके लिए मन, वचन और कायसे मद्य, मांस, मधु, मक्खन आदिका व्यापार न करे, न करावे और न उसकी अनुमोदना करे ।।९।। विशेषार्थ-पाक्षिक श्रावक मद्यादिके सेवनका नियम लेता है कि मैं इनका सेवन नहीं करूँगा । किन्तु उनके व्यापार आदि न करनेका नियम नहीं करता । दर्शनिक उसका भी नियम लेता है ॥९॥ आगे जिनके साथ सम्बन्ध रखनेसे मद्यत्याग आदि व्रतको हानि पहुँचती है उसको बतलाते हैं ___ मद्य-मांस आदिका सेवन करनेवाली स्त्रियोंको सेवन करनेवाला और खान-पान आदिमें मद्य-मांसका सेवन करनेवाले पुरुषोंका साथ करनेवाला अर्थात् उनके साथ खानपान करनेवाला दर्शनिक श्रावक निन्दाके साथ अष्ट मूल गुणोंकी हानि करता है ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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