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________________ १२५ द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय ) पाक्षिकाचारसंस्कारदृढीकृतविशुद्ध दृक् । भवाङ्ग भोगनिविण्णः परमेष्ठिपदैकधीः ।।७।। निर्मलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुकः । न्याय्यां वृत्ति तनुस्थित्यै तन्वन्दर्शनिको मतः ॥८॥ भवाङ्गभोगा:-संसारशरीरेष्टविषयाः । अथवा भवाङ्ग-संसारकारणं यो भोगो बुद्धिपूर्व कामिन्यादिविषयसेवनं, ततो निविण्णो-विरक्तः। प्रत्याख्यानावरणाख्य-चारित्रमोहकर्मविपाकवशात्कामिन्यादि-विषयान् भजन्नपि तत्राकृतसेवानिर्बन्ध इत्यर्थः। परमेष्ठीपदैकधी:-अर्हदादिपञ्चगुरुचरणेष्वेव धीरन्तर्दृष्टिर्यस्य । आपदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थ शासनदेवतादीन् कदाचिदपि न भजते । पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवमर्थमेकग्रहणम् ॥७॥ निर्मूलयन्-मूलादपि निरस्यन् । उक्तं च 'आदावेतत्स्फुटमिह गुणा निर्मला धारणीयाः, पापध्वंसिनतमपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कर्तुं शक्यं स्थिरमुरुभरं मन्दिरं गर्तपूरं न स्थेयोभिर्दृढतममृते निर्मितं ग्रावजालैः ।।' [ अमि. श्रा. ५।७३ ] अग्रगुणः-व्रतिकपदम् । न्याय्यां-स्ववर्णकुलव्रतानुरूपाम् । वृत्ति-कृष्यादिवार्ताम् । तनुस्थित्यै- १५ शरीरवर्तनाथं न विषयोपसेवनार्थम् । जिसने पूर्व अध्यायमें विस्तारसे कहे गये पाक्षिक श्रावकके आचारके आधिक्यसे अपने निर्मल सम्यग्दर्शनको निश्चल बना लिया है, जो संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त है, अथवा प्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोहकर्मके उदयसे प्रेरित होकर स्त्री आदि विषयों को भोगते हुए भी उनके भोगनेका आग्रह नहीं रखता, जिसकी एकमात्र अन्तर्दृष्टि अर्हन्त आदि पाँच गुरुओंके चरणों में ही रहती है, जो मूलगुणोंमें अतिचारोंको जड़-मूलसे ही दूर कर देता है और व्रतिक प्रतिमा धारण करनेके लिए उत्कण्ठित रहता है तथा शरीरकी स्थितिके लिए, (विषयसेवनके लिए नहीं) अपने वर्ण, कुल और व्रतोंके अनुरूप कृषि आदि आजीविका करता है वह दशनिक श्रावक माना गया है ।।७-८|| विशेषार्थ--श्रावकाचारोंमें प्राचीनतम रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें सर्वप्रथम प्रत्येक प्रतिमाका स्वरूप वर्णित है। उसमें कहा है कि जिनेन्द्रदेवने श्रावकके ग्यारह पद कहे हैं जिनमें अपनी प्रतिमाके गण पहलेकी प्रतिमाके गुणों के साथ क्रमसे बढते हए स्थित रहते हैं । अतः जब श्रावकके ग्यारह पद होते हैं तो पाक्षिक श्रावकका पद ग्यारहमें सम्मिलित न होनेसे उसकी श्रावक संज्ञापर आपत्ति आती है। इससे पूर्वके किसी श्रावकाचारमें यह पद है भी नहीं। इस आशंकाके निवारणके लिए पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें पाक्षिकको नैगमादि नयकी अपेक्षा दर्शनिक कहा है क्योंकि पाक्षिक भी सम्यग्दर्शनके साथ अष्ट मूल१. श्रावकपदानि देवैरेकादशदेशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ।। सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिविण्णः । पञ्चगरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः॥-रत्न. श्रा.१३६-१३७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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