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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय )
११९
अथैवंविधाचारपास्य श्रावकस्योत्तरोत्तरभूमिकाश्रयणेन सकलविरतिपदाधिरोहणविधिमुपदिशति
सैषः प्राथमकल्पिको जिनवचोऽभ्यासामृतेनासकृ
निर्वेदद्रुममावपन् शमरसोद्गारोधुरं बिभ्रति । पाकं कालिकमुत्तरोत्तरमहान्त्येतस्य चर्याफला
__ न्यास्वाद्योधतशक्तिरुद्धचरितप्रासादमारोहतु ॥८॥ सैषः स एष इत्यर्थः । पादपणेऽत्र सेर्लोपः। प्राथमकल्पिक:-प्रारब्धदेशसंयमः । आवपन्सिञ्चन् । उद्गार-अभिव्यक्तिः । कालिकं-कालकृतम । चर्या:-दर्शनिकादिप्रतिमाः। उधचरितंसल्लेखनान्तो यतिधर्म इति । भद्रम् ॥८७॥
इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापर
संज्ञायामेकादशोऽध्यायः ।
इस प्रकार पाक्षिकके आचारमें तत्पर श्रावकके उत्तरोत्तर प्रतिमाओंपर आरोहण करते हुए मुनिपद धारण करनेकी कामना करते हैं
वही पाक्षिक श्रावक बार-बार जिनागमकी भावनारूप अमृतके द्वारा संसार शरीर भोगोंसे वैराग्यरूप वृक्षको सींचता हुआ, शान्तिरूपी रसकी अभिव्यक्तिसे लबालब भरे हुए काल पाकर पकनेवाले और उत्तरोत्तर महान उस वृक्षके चारित्ररूपी फलोंको खाकर शक्तिके बढ़ जानेपर मुनिधर्मरूपी महलपर आरोहण करे ॥८॥
विशेषार्थ-यहाँ वैराग्यको एक वृक्ष माना है। जैसे वृक्षको जलसे सींचते हैं वैसे ही यह वैराग्यरूपी वृक्ष बार-बार जिनेन्दके वचनोंके अभ्यासरूपी जलसे सींचा जाता है। फिर उसपर पहली, दूसरी, तीसरी आदि प्रतिमाके आचाररूप फल लगते हैं, जो समय पाकर पकते हैं और उत्तरोत्तर महान् होते हैं अर्थात् उत्तरोत्तर प्रतिमाओंमें चारित्र बढ़ता जाता है। तथा उन चारित्ररूपी फलोंमें शान्तिरूपी रस भरा होता है। उसके सेवनसे श्रावककी शक्ति बढ़ती जाती है और तब वह मुनिपद धारण करके सल्लेखनापूर्वक मरण करता है ।।८७॥ इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मकी भव्यकुमुद चन्द्रिका टोका सोपज्ञ तथा ज्ञानदीपिका पञ्जिकाकी अनुसारिणी हिन्दी टीकामें प्रारम्भसे ग्यारहवाँ और
इस सागारधर्मकी अपेक्षा दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।
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