________________
द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय )
अथ नैष्ठिकं दर्शयन्नाह
देशयमनकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् ।
दर्शनिकायेकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः ॥१॥ देशयमघ्नाः-अप्रत्याख्यानावरणाख्याः । वशः-सामर्थ्यम् । दर्शनं निर्मलं मद्यादिविरत्याहिताशयं ६ सम्यक्त्वमस्यास्तीत्यतिशायने ठावत इति ठः। एवं वतिकादयस्त्रयो व्युत्पाद्याः । उक्तं च
'दंसण-क्द-सामायिय-पोसह-सच्चित्त-राइभत्तेय ।
ब्रह्मारंभपरिग्गह अणुमणमुद्दिटुदेशविरदेदे ॥' [गो. जी. ४७६ ] सुलेश्यतरः । लिम्पति स्वीकरोति पुण्यपापे स्वयं जीवो यया सा लेश्या । उक्तं च
'लिम्पत्यात्मीकरोत्यात्मा पुण्यापुण्यैर्यथा स्वयम् ।
सा लेश्येत्युच्यते सद्भिद्विविधा द्रव्यभावतः ॥' [ अथवा लिशत्यल्पीकरोत्यात्मानमिति लेश्या। कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिः। सैषा भावतः द्रव्यतस्तु शरीरच्छवितेश्या । सा च द्वितय्यपि कृष्णादिभेदात् षोढा । उक्तं च
'प्रवृत्तिर्योगिकी लेश्या कषायोदयरञ्जिता । भावतो द्रव्यतो देहच्छविः षाढोभयी मता ॥ कृष्णा नीलाथ कापोती पीता पद्मा सिता स्मता।
लेश्या षड्भिः सदा ताभिः गृह्यते कर्म जन्मिभिः ।।' [अमित. पञ्चसं. १०२५३-२५४] नैष्ठिकका लक्षण कहते हैं
देशचारित्रको घातनेवाली कषायके क्षयोपशमके उत्तरोत्तर उत्कर्ष के कारण दर्शनिक आदि ग्यारह अवस्थाओंके अधीन तथा पाक्षिक की अपेक्षा उत्तम लेश्यावाला नैष्ठिक श्रावक होता है ॥१॥
विशेषाथ--अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ नामक कषाय देशचारित्रको घातती हैं। उसके क्षय अर्थात उदयके अभावके साथ प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे विशिष्ट सदवस्थारूप उपशमको क्षयोपशम कहते हैं। यह क्षयोपशम पहलेसे दूसरी, दूसरीसे तीसरी, इस तरह ऊपरकी प्रतिमाओंमें बढ़ता जाता है । इसीके कारण दर्शनिक, व्रतिक आदि ग्यारह अवस्थाएँ होती हैं। उन सब अबस्थावाले श्रावक नैष्ठिक कहलाते हैं। उनके उत्तरोत्तर उत्तम लेश्या होती है। यहाँ लेश्याका वर्णन किया जाता है। जिसके द्वारा जीव अपनेको पुण्यपापसे लिम्पित करता है उसे लेश्या कहते हैं । लेश्याके दो भेद हैं-भावलेश्या और द्रव्यलेश्या । कषायके उदयसे रंगी मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको भावलेश्या कहते हैं। और शरीरके रंगको द्रव्यलेश्या कहते हैं । प्रत्येकके छह भेद हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पड़ा और शुक्ल । प्रारम्भकी तीन लेश्या कषायकी तीव्रतामें होती हैं, शेष तीन कषायकी मन्दतामें होती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org