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________________ १२ धर्मामृत ( सागार) 'होमभूतबली पूर्वैरुक्ती भक्तविशुद्धये । भुक्त्यादौ सलिलं सर्पिरूधस्यं च रसायनम् ।। एतद्विधिनं धर्माय नाधर्माय तदक्रिया । दर्भपुष्पाक्षतश्रोतृवन्दनादि विधानवत् ॥' तथा 'बहिविहृत्य संप्राप्तो नानाचम्य गृहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं सर्वं प्रोक्षितमाचरेत् ।।' [सो. उपा. ४७४, ४७५, ४७१ ] इत्यादि ।।८४॥ अथ श्रेयोथिनः कीर्तेरप्यर्जनीयत्वमाह_अकीर्त्या तप्यते चेतश्चेतस्तापोऽशभास्रवः। तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥८५।। अशुभास्रवः-पापहेतुः ॥८५॥ अथ कीयुपाजनोपायमाह परासाधारणान् गुण्यप्रगण्यानघमर्षणान् । गुणान् विस्तारयेन्नित्यं कोतिविस्तारणोद्यतः ॥८६॥ गुण्यप्रगण्यान्-गुणवद्भिः प्रकर्षण माननीयान् । अघमर्षणान्-पापध्वसिनः । गुणान्-दानसत्यशौचशीलादीन् ।॥८६॥ रथयात्रा आदि करना चाहिए इससे उसकी श्रद्धामें प्रगाढ़ता और निर्मलता आती है। पहले लोग तीर्थयात्रासे लौटनेपर अपने इष्टमित्रों और साधर्मियोंको अपने घरपर भोजन कराया करते थे। इससे साधर्मी वात्सल्यमें वृद्धि होती है ॥८४॥ आगे यश कमानेपर भी जोर देते हैं यश न होनेसे मनुष्यके मनमें संक्लेश रहता है और चित्तमें संक्लेशके रहनेसे अशुभ कर्मोंका आस्रव होता है। इसलिए चित्तकी प्रसन्नताके लिए, जो कि पुण्य संचयका कारण है, सदा यश उपार्जन करना चाहिए ॥८५॥ विशेषार्थ-मनुष्य चाहता है कि लोगोंमें-समाजमें मेरा यश हो, लोग मेरे कार्योंकी बड़ाई करें। यदि ऐसा नहीं होता तो उसके मनमें दुःख रहता है । दुःखरूप परिणामोंसे पापकर्मका बन्ध होता है। अतः कल्याणके लिए पुण्यकर्मका उपार्जन आवश्यक है। और उसके लिए मनमें प्रसन्नता रहना जरूरी है। इसलिए गृहस्थको ऐसे भी काम करना चाहिए जिससे लोकमें ख्याति हो ॥८५॥ यश कमानेके उपाय कहते हैं अपना यश फैलाने में तत्पर गृहस्थको दूसरोंमें न पाये जानेवाले, और गुणवानों के द्वारा अति माननीय तथा पापोंका विनाश करनेवाले दान, सत्य, शौच, शील आदि गुणोंको नित्य बढ़ाना चाहिए ।।८६।। विशेषार्थ-इन्होंने कीर्ति फैलानेका उपाय सद्गुणोंको फैलाना बतलाया है। यह कठिन है। किन्तु यथार्थमें यश तो सद्गुणोंके फैलावसे ही मिलता है। अन्यायसे धन उपार्जन करके उससे यश कमाना लौकिक दृष्टि में भले ही उत्तम माना जाये। किन्तु सद्गुणोंके प्रकारमें योगदानसे अपना और सबका कल्याण होता है ।।८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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