SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ धर्मामृत ( सागार ) सेव्यानामप्यर्थानां सेवायामसम्भवत्यां कालपरिच्छित्या प्रत्याख्येयतामुपदिश्य तत्प्रत्याख्यानं फलवत्तया समर्थयते यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानाप्रवृत्तितः । व्रतयेत्सव्रतो दैवान्मृतोऽमुत्र सुखायते ॥७७॥ स्पष्टम् ॥७७॥ अथ 'तपश्चयं च शक्तितः' इत्यक्तं तद्विशेषविधिमभिधत्ते पञ्चम्यादिविधि कृत्वा शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्योतयेद्यथासंपन्निमित्त प्रोत्सहेन्मनः ॥७८॥ पं.........॥७८॥ समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः। छिन्नं दात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ॥७९॥ संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः। निवत्तिर्वा'वतं स्याद्वा प्रवत्तिःशभकर्मणि ॥८॥ उसका भी निर्वाह नहीं किया जाता। इस समय रात्रिभोजन जैनों में भी अजैनोंकी तरह ही प्रवर्तित है। यह बड़े खेदकी बात है। धार्मिकोंको इस ओर ध्यान देना चाहि __ सेवनीय पदार्थ भी जबतक सेवनमें न आवें तबतक कालकी मर्यादा करके उनको त्यागनेका उपदेश देते हुए उसका फल बतलाते हैं जितने काल तक स्त्री, ताम्बूल आदि विषयोंके सेवन करनेकी सम्भावना न हो तबतक उन विषयोंका त्याग कर देना चाहिए। दैववश यदि व्रतके साथ मरण हुआ तो परलोकमें सुखको भोगता है ॥७॥ ___ पहले कहा था कि शक्तिके अनुसार तप भी करना चाहिए, उसीका विशेष कथन करते हैं इन्द्र चक्रवर्ती आदिके पदोंके साथ अन्तमें मोक्ष प्रदान करनेवाले पुष्पांजलि मुक्तावली रत्नत्रय आदि विधानको करके सम्पत्तिके अनसार उद्यापन करना चाहिए। तथा नित्य कृत्यकी अपेक्षा नैमित्तिक अनुष्ठानमें मनको अधिक उत्साहित करना चाहिए ॥७८॥ अब व्रतोंको लेना, उनका रक्षण करना, यदि व्रत भंग हो जाये तो प्रायश्चित्त लेकर पुनः व्रत लेनेका उपदेश करते हैं ___ अपने कल्याणके इच्छुक गृहस्थको अपनी तथा देश, काल, स्थान और सहायकोंकी अच्छी तरह समीक्षा करके व्रत ग्रहण करना चाहिए। और ग्रहण किये हुए व्रतको प्रयत्नपूर्वक पालना चाहिए । प्रमादसे या मदमें आकर यदि व्रतमें दोष लग जाये तो तत्काल प्रायश्चित्त लेकर पुनः व्रत ग्रहण करना चाहिए ॥७९॥ आगे व्रतका स्वरूप कहते हैं सेवनीय अपनी स्त्री और ताम्बूल आदिके विषयमें संकल्पपूर्वक नियम लेना, अथवा संकल्पपूर्वक अशुभ कर्म हिंसा आदिसे विरक्त होना, या संकल्पपूर्वक पात्रदान आदि शुभ कर्ममें प्रवृत्ति करना व्रत है ।।८०॥ १. 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः।-सर्वार्थ. ७।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy