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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय ) 'दानमन्यद्भवेन्ना वा नरश्चेदभयप्रदः । सर्वेषामेव दानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥' [ सो. उपा. ७७४ ] 'यो भूतेष्वभयं दद्यात् भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् । यादृग्वितीयं दानं तादृगध्यास्यते फलम् ॥' [ सौरूप्यं । उक्तं च ] 'मनोभूरिव कान्ताङ्गः सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः । सरस्वानिव गम्भीरो विवस्वानिव भास्वरः ॥ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः । भवत्यभयदानेन चिरजीवी निरामयः ॥ तीर्थंकुच्चक्रिदेवानां सम्पदो बुधवन्दिताः । क्षणेनाभयदानेन दीयन्ते दलितापदः ॥' [ अभि. श्री . ११९-११ ] ॥ ७५ ॥ भृत्वाऽऽश्रितानवृत्याऽऽर्तान्कृपयानाश्रितानपि । भुञ्जीतन्ाम्बुभैषज्य ताम्बूलैलादि निश्यपि ॥७६॥ आदिशब्देन जातिफलकर्पूरादिमुखवासन प्रायद्रव्यपरिग्रहः ॥ ७६ ॥ Jain Education International विशेषार्थ - सोमदेव सूरिने अभयदानकी प्रशंसा करते हुए कहा है - जिसने अभय दान दिया उसने समस्त शास्त्रोंका अध्ययन कर लिया, उत्कृष्ट तप तथा और सब दान दिया । यदि मनुष्यने अभयदान दिया तो वह अन्य दान देवे या न देवे । क्योंकि अभयदान सब दानों में श्रेष्ठ है । जो प्राणियोंको अभयदान देता है उसे प्राणियोंसे कोई भय नहीं रहता । ठीक ही है जैसा दान दिया जाता है वैसा ही फल प्राप्त होता है । आचार्य अमितगतिने कहा हैधर्म, अर्थ, काम और मोक्षका मूल जीवन है जिसने उसकी रक्षा की उसने क्या नहीं दिया और जिसने उसे हर लिया उसने क्या नहीं हर लिया । अभयदानसे कामदेवकी तरह सुन्दर शरीर, सुमेरु पर्वत की तरह स्थिर, समुद्रकी तरह गम्भीर, सूर्यकी तरह प्रकाशमान तथा सौभाग्यशाली, सौम्य, त्यागी, भोगी, यशस्वी, नीरोग और चिरंजीवि होता है । अभयदानसे तीर्थंकर, चक्रवर्ती और देवोंकी विभूति क्षणमात्रमें प्राप्त होती है तथा आपत्तियाँ दूर होती हैं ॥ ७५ ॥ पहले कहा था कि श्रावकको धर्म और यशके कार्य करना चाहिए | उसीका विस्तार करते हुए अपने आश्रितोंके भरण-पोषण और दया बुद्धिसे जो अपने आश्रित नहीं हैं उनका भी भरण-पोषण करनेकी प्रेरणा करते हुए दिन में भोजनका उपदेश देते हैं tara न होनेसे दुःखी अपने आश्रित मनुष्यों और तियंचोंको तथा दयाभाव से जो अपने आश्रित नहीं हैं उनका भरण-पोषण करके गृहस्थको दिनमें भोजन करना चाहिए । तथा रात्रिमें भी जल, औषधी, पान, इलायची आदि ले सकता है ॥७६॥ विशेषार्थ - यह कथन पाक्षिक श्रावकके लिए है । पाक्षिक श्रावकको चारों प्रकारका आहार तो दिन में ही करना चाहिए, रात्रि में केवल औषधि, जल और मुखको शुद्ध तथा सुवासित करनेवाले द्रव्य ही खाना चाहिए । केवल अन्न मात्र रात्रिमें न लेनेकी और उसके सिवाय अन्य सब कुछ खानेकी परम्परा आगमिक नहीं है, लौकिक है । किन्तु आज तो १. 'ताम्बूलमोषधं तोयं मुक्त्वाऽऽहारादिकां क्रियाम् । प्रत्याख्यानं प्रदीयेत यावत्प्रातदिनं भवेत् ' ॥ [ सा. - १५ ] ११३ For Private & Personal Use Only ३ ६ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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