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धर्मामृत ( सागार) आर्यिकाः श्राविकाश्चापि सत्कुर्याद गुणभूषणाः ।
चतुविधेऽपि सङ्घ यत्फलत्युप्तमनल्पशः ॥७३॥ स्पष्टं ॥७३॥ एवं धर्मपात्रानुग्रहं गृहस्थस्यावश्यकार्यतयोपदिश्य सम्प्रति कार्यपात्रानुग्रहविध्युपदेशार्थमाह
धर्मार्थकामसध्रीचो यथौचित्यमुपाचरन् ।
सुधीस्त्रिवर्गसंपत्या प्रेत्य चेह च मोदते ॥७॥ सध्रीचः-सहायान् ॥७४॥ एवं समदत्ति पात्रदत्त च प्रबन्धेनाभिधायेदानी दयादत्ति विधेयतमत्वेनोपदिशन्नाह
सर्वेषां देहिनां दुःखाद् बिभ्यतामभयप्रदः।
दयाद्रो दातधौरेयो निीः सौरूप्यमश्नुते ॥७॥ दातृधौरेयः-अन्नादिदातृणामग्रणीः । यदाह
'तेनाधीतं श्रुतं सर्वं तेन तप्तं परं तपः।
तेन कृत्स्नं कृतं दानं यः स्यादभयदानवान् ।।' [ सो. उपा. ७७५ ] अपि च
'धमार्थकाममोक्षाणां जीवितं मूलमिष्यते ।
तद्रक्षता न कि दत्तं हरता तन्न किं हृतम् ॥' [ अमि. श्रा. १११२ ] श्रुत-तप-शील आदि गुणोंसे सुशोभित उपचरित महाव्रतकी धारी आर्यिकाओं और यथाशक्ति मूलगुण और उत्तर गुणोंकी धारी श्राविकाओंको तथा 'अपि' शब्दसे गुणभूषित किन्तु व्रतरहित नारियोंका भी गृहस्थको विनय आदि पूर्वक सत्कार करना चाहिए। क्योंकि मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविकाके भेदसे चतुर्विध संघमें दिया गया ज्ञान बहुत फल देता है ।।७।।
विशेषार्थ-आशय यह है कि जिनबिम्ब, जिनालय और जिनवाणीमें व्यय किया गया धन ही बहुफल दायक नहीं होता, किन्तु चतुर्विध संघमें दिया गया दान भी बहु फलदायक होता है। इस तरह गृहस्थ के धन खर्च करनेके लिए ये सात स्थान जानने चाहिए ॥७३॥
__इस प्रकार धर्मपात्रोंपर अनुग्रह करना गृहस्थका आवश्यक कर्तव्य बतलाकर अब कार्यपात्रोंपर अनुग्रह करनेका उपदेश देते हैं
__ धर्म, अर्थ और काममें सहायकोंका यथायोग्य उपकार करनेवाला बुद्धिशाली गृहस्थ इस लोकमें और परलोकमें धर्म, अर्थ और कामरूप सम्पदासे सम्पन्न होकर आनन्दित होता है ॥७४॥
विशेषार्थ-जो धर्ममें सहायक ज्ञानी तपस्वीजन हैं, अर्थमें सहायक मुनीम गुमाश्ते हैं और काममें सहायक पत्नी है, इन सभीका यथायोग्य सत्कार करनेसे गृहस्थाश्रम सानन्द रहता है ।।७४॥
__ इस प्रकार समदत्ति और पात्रदत्तिको विस्तारसे कहने के बाद अब दयादत्तिको अवश्य करणीय कहते हैं
शारीरिक और मानसिक दुःखसे डरनेवाले सब प्राणियोंको अभयदान देनेवाला दयालु अन्न आदिका दान देनेवालोंमें अग्रणी होता है तथा वह सब ओरसे भयरहित होकर सौरूप्यको प्राप्त होता है ।।७५।।
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