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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) अथ जिनधर्मानुबन्धार्थमसतां मुनीनामुत्पादने सतां च गुणातिशयसम्पादने प्रयत्नविधापनार्थमाह
जिनधर्म जगद्वन्धुमनुबद्धमपत्यवत् ।
यतीञ्जनयितुं यस्येत्तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥७॥ यस्येत्-प्रयतेत गृही । गुणैः-श्रुतज्ञानादिभिः ॥७१॥
अथ संप्रति पुरुषाणां दुष्कर्मगुरुत्वाद् गुणातिशयसिद्धयदर्शनात्तदुत्पादने निष्फलः प्रयत्न इति गृहिणां मनोभङ्गनिषेधार्थमाह
श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव कलिदोषाद गुणातौ । ___असिद्धावपि तत्सिद्धौ स्वपरानुग्रहो महान् ।।७२॥
कलि:-पञ्चमकाल: पापकर्म वा । गुणधुतां-गुणातिशयशालिनां विषये । यत्नवतः-श्रावकस्य । तेषामसिद्धावपि इत्यावृत्या योज्यम् ॥७२॥
अथ महाव्रतमणुव्रतं वा विभ्रत्यः स्त्रियोऽपि धर्मपात्रतयानुग्राह्या इति समर्थयितुमाहदान किया था। उसीके फलस्वरूप इसे यह ऋद्धि प्राप्त हुई है। तीसरे आवासदानमें एक शूकरका नाम उल्लेखनीय है। मालवदेशमें एक कुम्भकार और एक नाईने एक वसतिका बनवायी। कुम्भकारने उसमें एक मुनिको ठहराया और नाई एक संन्यासीको ले आया । दोनोंने मिलकर मुनिको बाहर निकाल दिया। इसपर कुम्भकार और नाईकी लड़ाई हुई। कुम्भकार मरकर शूकर हुआ और नाई व्याघ्र। एक बार जिस गुफामें शूकर रहता उसी गुफामें दो मुनि आकर ठहरे । व्याघ्र मनुष्यकी गन्ध पाकर आया तो शूकर गुफाके द्वारपर उससे भिड़ गया और मरकर स्वर्गमें देव हुआ। शास्त्रदानके फलसे कौण्डेश मुनि शास्त्र पारगामी हुए । पूर्वजन्ममें उसे वनमें वृक्षके एक कोटरमें एक शास्त्र मिला । वह शास्त्र उसने एक मुनिको भेंट किया और उसकी पूजा करता रहा। मरकर वह उसी ग्रामके स्वामीका पुत्र हुआ। बड़ा होनेपर उसे पूर्वजन्मका स्मरण हुआ। मुनिदीक्षा लेकर वह कौण्डेश नामसे प्रसिद्ध जैनाचार्य हुआ । अतः चारों प्रकारका दान करना उचित है ।।७०॥
आगे कहते हैं कि जिनधर्मकी परम्परा चालू रखनेके लिए नवीन मुनियोंको उत्पन्न करनेका और विद्यमान मुनियोंके गुणोंमें विशेषता लानेका प्रयत्न करना चाहिए
जैसे गृहस्थ अपने वंशकी परम्परा चलानेके लिए सन्तान उत्पन्न करता है और उसे गुणी बनानेका प्रयत्न करता है उसी तरह उसे लोकोपकारी जैनधर्मकी परम्पराको चालू रखनेके लिए नवीन मुनियोंको उत्पन्न करनेका और वर्तमान मुनियोंको श्रुतज्ञान आदिसे उत्कृष्ट बनानेका प्रयत्न करना चाहिए ।।७१॥
'आजकल पुरुषोंके दुष्कर्म बढ़ते जाते हैं, उनके गुणोंमें कोई उन्नति नहीं देखी जाती, अतः उसके उत्पन्न करनेका प्रयत्न निष्फल है' गृहस्थोंके इस प्रकारके निरुत्साहका निषेध करते हैं
पंचमकालके अथवा पापकर्मके दोषसे मुनियोंके गुणोंमें विशेषता लानेके प्रयत्नके सार्थक नहीं होनेपर भी जो प्रयत्न करता है, उसका कल्याण अवश्य होता है। और यदि उसमें सफलता मिलती है तो उस प्रयत्नके करनेवाले मनुष्यका तथा साधर्मिजनों और जनसाधारणका महान् लाभ है ॥७२॥
महाव्रत अथवा अणुव्रतका पालन करनेवाली स्त्रियाँ भी धर्मपात्र होनेसे पात्रदानके योग्य हैं, इसका समर्थन करते हैं
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