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________________ ११० धर्मामृत ( सागार) तपः श्रुतोपयोगीनि निरवद्यानि भक्तितः। मुनिभ्योऽन्नौषधावासपुस्तकादीनि कल्पयेत् ॥६९।। निरवद्यानि-उद्गमादिदोषरहितानि । पुस्तकादीनि आदिशब्देन पिच्छिकाकमण्डल्वादीनि । ' कल्पयेत्-उपकारयेत् ॥६९॥ अथान्नादिदानफलानां क्रमेण निदर्शनान्याह भोगित्वाद्यन्तशान्तिप्रभुपदमुदयं संयतेऽन्नप्रदाना च्छीषेणो रुग्निषेधाद्धनपतितनया प्राप सर्वोषर्धाद्धम् । प्राक्तज्जन्मर्षिवासावनशुभकरणाशकरः स्वर्गमयं कौण्डेशः पुस्तका वितरणविधिनाऽप्यागमाम्भोधिपारम् ॥७०॥ भोगित्वाद्यन्तशान्तिप्रभुपदं-भोगित्वमुत्तमभोगभूमिजत्वमादावन्ते च शान्तिप्रभोः शान्तिनाथतीर्थकरस्य पदं यस्य। अन्नप्रदानात्-बीजत्वमात्रविवक्षात्र । तथाविधाभ्युदयस्योत्तरोत्तरपुण्यविशेषोदयसंपाद्यत्वात् । श्रीषेण:-स एव राजा। रुग्निषेधात्-ब्याधिप्रतीकारादौषधादेः। धनपतितनयावृषभसेनाभिधाना, पूर्वभवे राज्ञो देवकुलस्य संमाजिका । प्राक्तज्जन्मनोः-पूर्वभवे च शुभकरणात् मुनिरक्षाभिप्रायेण शुभाभिसन्धिपरिणामात् । अयं-सौधर्मे महद्धिकदेवत्वमित्यर्थः। कौण्डेशः-गोविन्दाख्यगोपालचरो ग्रामकूटपुत्रः सन् कौण्डेशो नाम मुनिः ॥७०॥ १३ मुनियोंको भक्तिपूर्वक तप और श्रुतज्ञानमें उपयोगी तथा अनगार धर्मामृतके पिण्डशुद्धि नामक अध्यायमें कहे गये उद्गम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित, आहार, औषध, वसतिका और पुस्तक आदि देना चाहिए। आदि शब्दसे पीछी-कमण्डलु आदि आते हैं ॥६९।। आगे क्रमसे आहार आदि दानका फल कहते हैं मुनियोंको विधिपूर्वक आहार देनेसे राजा श्रीषेण मरकर प्रारम्भमें उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और अन्तमें शान्तिनाथ नामक सोलहवें तीर्थकरके पदको प्राप्त हुआ। धनपति सेठकी पुत्री रोग दूर करनेके लिए औषधदान देनेसे समस्त औषधोंकी ऋद्धिको प्राप्त हुई । पूर्व जन्ममें मुनियोंको आवास देनेके शुभ परिणामसे और उस जन्ममें मुनियोंकी रक्षा करनेके शुभ परिणामसे शूकर सौधर्म स्वगमें महद्धिक देव हुआ । और कौण्डेश मुनि शास्त्रोंकी पूजा और दान करनेसे द्वादशांग श्रुतके पारको प्राप्त हुए ॥७०॥ विशेषार्थ-रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें दानके चार भेदोंके उक्त चार उदाहरण दिये हैं। तदनुसार पं. आशाधरजीने भी दिये हैं। राजा श्रीषेणने अर्ककीर्ति और अमितगति नामक दो चारण मुनियोंको आहार दिया था। उस दानसे होनेवाले पुण्यवन्धके फलस्वरूप राजा श्रीषेणने मरकर भोगभूमिमें जन्म लिया। फिर वे अन्तमें शान्तिनाथ तीर्थकर हुए । यद्यपि वे उसी पुण्यसे तीर्थंकर नहीं हुए । किन्तु उत्तरोत्तर पुण्य विशेषसे तीर्थकर हुए। तथापि उसका बीज आहारदान था । औषधदानमें वृषभसेनाका उदाहरण उल्लेखनीय है । वृषभसेना धनपति सेठकी पुत्री थी। उसके स्नानके जलसे प्राणियोंकी शारीरिक व्याधि दूर हो जाती थी। एक मुनिराजसे इसका कारण पूछनेपर उन्होंने बतलाया कि पूर्वजन्ममें इसने औषध १. 'श्रीषेणवृषभसेने कोण्डेशः सूकरच दृष्टान्ताः । वयावृत्यस्यते चतुविकल्पस्य मन्तव्याः॥-रत्न. श्रा., ११८ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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