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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय ) न हिस्यात्सर्वभूतानीत्या धर्मी प्रमाणयन् । सागसोऽपि सदा रक्षेच्छक्त्या किं नु निरागसः॥८१॥ ..जन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥८॥ आरम्भेऽपि सदा हिंसां सुधीः साङ्कल्पिकों त्यजेत् । घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽघ्नन्नपि धीवरः ॥८॥ कि अमुञ्चतः स मांसाद्यथित्वेन हन्मीति संकल्पपूर्विकाम्............। '[ अघ्नन्नपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि-] न पापभाक् । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षकौ ॥' [ सो. उपा. ३४१ ] ८२॥ विशेषार्थ-यह इतनी वस्तु मैं इतने काल तक सेवन नहीं करूँगा, अथवा यह इतनी वस्तु इतने काल तक मैं सेवन करूँगा, इस प्रकारसे मनमें निर्णय करके नियम लेनेको व्रत कहते हैं। जबतक संकल्पपूर्वक नियम नहीं लिया जाता तबतक व्रत नहीं कहाता । नियम करनेसे मन उस वस्तुकी ओरसे निवृत्त हो जाता है। अन्यथा सेवनकी भावना बनी रहती है ।।८।। आगम विशेषपर विश्वासका आलम्बन लेकर प्राणिरक्षाका उपदेश देते हैं समस्त त्रस और स्थावर जीवोंको नहीं मारना चाहिए इस प्रकारके ऋषियोंके वचनको 'यही सत्य है' इस प्रकार प्रमाण माननेवाले धार्मिकको अपराध करनेवाले जीवोंकी भी सदा रक्षा करनी चाहिए। तब जो निरपराधी हैं उनका तो कहना ही क्या है ? उनकी रक्षा तो अवश्य ही करनी चाहिए ।।८।।। विशेषार्थ-'मा हिंस्यात्सर्वभूतानि'-सब प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए यह श्रुतिवचन है । जो वेदपर श्रद्धा रखते हैं उन्हें इस श्रुतिवाक्यको प्रमाण मानकर अपराधी जीवोंका भी प्राण नहीं लेना चाहिए। मनुस्मृति में कहा है-'जो अपने सुखके लिए अहिंसक जीवोंका वध करता है वह जीता हुआ और मरकर भी सुखी नहीं होता' ।।८१॥ . संकल्पी हिंसाके त्यागका उपदेश देकर दृष्टान्तके द्वारा उसका समर्थन करते हैं हिंसाके फलको निश्चित रूपसे जाननेवाला बुद्धिमान पुरुष कृषि आदि आरम्भ करते हुए भी संकल्पी हिंसाको छोड़े। क्योंकि मारते हुए भी किसानसे नहीं मारता हुआ भी मछलीमार अधिक पापी है ॥८२॥ विशेषार्थ-हिंसाका पालन इसलिए अशक्य-जैसा प्रतीत होता है क्योंकि ऐसी कोई क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा न होती हो। किन्तु इसीलिए जैन धर्म में हिंसाके अनेक भेद करनेके साथ ही गौण और मुख्य भावोंपर विशेष बल दिया है । हिंसाके मुख्य दो भेद हैंअनारम्भी या संकल्पी हिंसा और आरम्भी हिंसा। 'मैं मांस आदि के लिए अमुक प्राणीको मारूँ' यह संकल्पी हिंसा है। किन्तु आरम्भमें होनेवाली हिंसाको टालना तो अशक्य है क्योंकि गृहस्थाश्रम आरम्भके बिना चल नहीं सकता और आरम्भमें हिंसा अवश्य होती है। अतः आरम्भमें भी संकल्पी हिंसा नहीं करनी चाहिए। आरम्भी हिंसा करनेवालेसे संकल्पी हिंसा १. धर्मे मु.। २. 'योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ॥'-मनुस्म. ५।४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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