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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय )
१०७ एतेन सदृष्टिना कुपात्राय न देयं देयं वा.......दिवशात् किञ्चिदुद्धृतमेवेत्युपदिष्टं स्यात् । तथा चोक्तम्
'मिथ्यात्वग्रस्तचित्तेषु चारित्राभासभागिषु । दोषायैव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥ कारुण्यादथवौचित्यात्तेषां किञ्चिद्दिशन्नपि । दिशेदुद्धृतमेवान्नं गृहे भुक्तिं न कारयेत् ॥ सत्कारादिविधावेषां दर्शनं दूषितं भवेत् ।
यथा विशुद्धमप्यम्बु विषभाजनसंगमात् ।।' कि च
'शाक्य-नास्तिक-यागज्ञ-जटिलाजीविकादिभिः । सहावासं सहालापं तत्सेवां च विवर्जयेत् ।। अज्ञानतत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः। युद्धमेव भवेद् गोष्ठयां दण्डादण्डि कचाकचि ।। भयलोभोपरोधाद्यैः कुलिङ्गेषु निषेवणे । अवश्यं दर्शनं म्लायेन्नीचैराचरणे सति ।। बुद्धिपौरुषयुक्तेषु देवायत्तविभूतिषु
नृषु कुत्सितसैवायां देन्यमेवातिरिच्यते ॥ [ सो. उपा. ८०१-८०७ ] जानकर भक्तिपूर्वक जिनदेवका पूजन करते हैं। किन्तु सम्यक्त्व और व्रतसे रहित अपात्रमें दान देना व्यर्थ है। अमितगतिने कहा है कि अपात्रदानसे पापके सिवाय दूसरा फल नहीं होता । बालूको पेरनेसे खेद ही हाथ आता है । जो उत्तम पात्रको छोड़कर अपात्रको धन देता है वह साधुको छोड़कर चोरको धन देता है। अतः अपात्रको पात्रबुद्धिसे दान नहीं देना चाहिए, दयाभावसे देने में कोई हानि नहीं है ।
भावसंग्रहमें देवसेनाचार्यने लिखा है-जो रत्नत्रयसे रहित है, मिथ्याधर्ममें आसक्त है वह कितना भी घोर तप करे फिर भी वह कुपात्र है। जिसमें न तप है, न चारित्र है, न कोई उत्कृष्ट गुण है उसे अपात्र जानो। उसको दान देना व्यर्थ है। कुपात्रको दान देनेसे कुदेवोंमें, कुमनुष्योंमें, तिथंचोंमें, लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्रवर्ती कुभोग भूमियोंमें जन्म होता है । या मानुषोत्तर पर्वतसे बाहर असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें जन्म होता है। ये सब मन्द कषाय और समस्त आधिव्याधिसे रहित होते हैं। तथा वहाँसे मरकर व्यन्तर या ज्योतिषी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। वहाँसे च्युत होकर वे सब तिर्यंच या मनुष्य होते हैं। और वहाँ पाप करके नरक जाते हैं । लोकमें जो चाण्डाल, भील, कलार, छीपी आदि धन सम्पन्न देखनेमें आते हैं यह सब कुपात्रदानका फल है। कुपात्रदानके फलसे कोई राजाओंके हाथी-घोड़े आदि होते हैं। कोई मनुष्य मरकर देवलोकमें वाहन जातिके देव होते हैं। वहाँ वे अन्य देवोंकी ऋद्धि देखकर दुःखी होते हैं।
यहाँ प्रसंगवश पल्यका स्वरूप कहते हैं-पल्यके तीन भेद हैं-व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धापल्य । ये सब नाम सार्थक हैं । प्रथमका नाम व्यवहारपल्य है क्योंकि वह आगेके दो पल्योंके व्यवहारका बीज है। इससे कुछ अन्य नहीं मापा जाता । दूसरेका नाम उद्धार पल्य है क्योंकि उससे उद्धृत (निकाले गये) रोमच्छेदोंसे द्वीप समुद्रोंकी गणना की जाती है।
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