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________________ १०६ धर्मामृत (सागार) तेषां खेदमलस्वेदजरारोगादिवर्जिताः। जायन्ते भासुराकाराः स्फाटिका इव विग्रहाः ॥ निधुवनकुशलाभिः पूर्णचन्द्राननाभिः स्तनभरनमिताभिमन्मथाध्यासिताभिः । पृथुतरजघनाभिबन्धुराभिर्वधूभिः समममलवचोभिः सर्वदा ते रमन्ते ॥' [ अमि. श्रा. ११।१०२, ११२, ११३, ११६, ११७, १२० ] बद्धायुष्का मानुषास्तथा तिर्यञ्चोऽपि पात्रदानानुमोदनया अवश्यमुत्तमभोगभूमिपूत्पद्यन्ते । यदाह 'बद्धाउया सुदिट्ठी मणुया अणुमोयणेण तिरिया वि।। णियमेणुववज्जंते ते उत्तमभोगभूमीसु॥' [ वसु. श्रा. २४९ गा. ] 'दिवोऽवतीर्योजितचित्तवृत्तयो महानुभावा भुवि पुण्यशेषतः । भवन्ति वंशेषु बुधाचितेषु ते विशुद्धसम्यक्त्वधरा नरोत्तमाः ।। अवाप्यते चक्रधरादिसम्पदं मनोरमामत्र विपुण्यदुर्लभाम् । नयन्ति कालं निखिलं निराकला न लभ्यते कि खल पात्रदानतः ।। निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणी प्रथीयसी द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिलं श्रयन्ति सिद्धि विदु.... .. पदं सदा ।। विधाय सप्ताष्टभवेषु वा स्फुटं जघन्यतः कल्मषकक्षकर्तनम् । व्रजन्ति सिद्धि मुनिदानवासिता व्रतं चरन्तो जिननाथभाषितम् ॥' [ किन्तु व्रत और तपसे युक्त कुपात्रको दान देता है तो कुभोगभूमिमें भूषण-वस्त्र रहित, गुफा या वृक्षके मूलमें निवास करनेवाला कुमनुष्य होकर अपने ही समान पत्नीके साथ यथायोग्य बाधा रहित भोगोंको भोगकर एक पल्य प्रमाण आयुके क्षय होनेपर मरकर वाहन जातिका देव, या ज्योतिष्क, या व्यन्तर, या भवनवासी देव होकर दीर्घ काल तक दुर्गतिके दुःखोंको भोगता हुआ संसारमें भ्रमण करता है । तथा कुभोगभूमियोंमें और मानुषोत्तर पर्वतसे बाहर तथा स्वयंप्रभ पर्वतसे पहले जो तियेच पाये जाते है, तथा जो म्लेच्छ राजाओंके हाथी, घोड़े, वेश्या वगैरह नीच प्राणी भोग भोगते हुए पाये जाते हैं वे सब कुपात्र दानसे परिणामोंके अनुसार उत्पन्न हुए मिथ्यात्व सहचारी पुण्यके उदयसे होते हैं। सोमदेव सूरिने कहा हैजिनका चित्त मिथ्यात्वमें फंसा है और जो मिथ्या चारित्रको पालते हैं, उनको दान देना बुराईका ही कारण होता है। जैसे साँपको दूध पिलानेसे वह जहर ही उगलता है । ऐसे लोगोंको दयाभावसे या औचित्यवश कुछ दिया भी जाये तो जो अवशिष्ट भोजन हो वही दिया जाये, किन्तु घरपर न जिमाना चाहिए। जैसे विषैले भाजनके सम्बन्धसे जल भी विषैला हो जाता है वैसे ही इन मिथ्यादृष्टि साधुओंका सत्कार करनेसे श्रद्धान भी दूषित होता है। अतः कुपात्रको सम्यग्दृष्टि दान नहीं देता। वह तो सुपात्रको ही दान देता है। और महातपस्वियोंको या तीन प्रकारके पात्रोंको दिये गये दानसे होनेवाले पुण्यके उदयसे उत्तम भोगभूमिके सुख भोगकर महद्धिक कल्पवासी देवोंके सुख भोगता है फिर चक्रवर्ती आदि होकर मोक्ष प्राप्त करता है। आचार्य अमितगतिने अपने उपासकाचारमें विस्तारसे पात्रदानका वर्णन करते हुए लिखा है कि सम्यग्दृष्टि जीव विधिपूर्वक पात्रदान करके और समाधिपूर्वक मरण करके अच्युत पर्यन्त स्वर्गों में जन्म लेते हैं और वहाँ धर्मके प्रसादसे अपना जन्म हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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