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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) १०३ अपि च 'काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं तदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।। यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः ॥' [ सो. उपा., ७९६-७९७ ] ॥६६॥ अथ मिथ्यादृष्टेजघन्यादिपात्रत्रये कुपात्रे चान्नदानात् सदृष्टेश्च सुपात्रेष्वेवान्नदानादुत्पन्नपुण्यस्य ६ फलविशेषमपात्रे चार्थविनियोगस्य वैयर्थ्य प्रतिपादयितुमाह न्यग्मध्योत्तमकुत्स्यभोगजगतो भुक्तावशेषावृषा तादृपात्रवितीर्णभुक्तिरसुदृग्देवो यथास्वं भवेत् । सदृष्टिस्तु सुपात्रदानसुकृतोद्रेकात्सुभुक्तोत्तम स्वर्भूमर्त्यपदोऽश्रुते शिवपदं व्यर्थस्त्वपात्रे व्ययः ॥६॥ न्यगित्यादि-न्यङ् जघन्यः एकपल्योपमभोग्यत्वात् । मध्यः द्विपल्योपमभोग्यत्वादुत्तमस्त्रिपल्योपन- १२ भोग्यत्वात् । कुत्स्यः सुस्वादुमृत्पुष्पफलाशनवृत्तित्वादेकोरुकादिदेहयोगाच्च । न्यङ् च मध्यमश्चोत्तमश्च कुत्स्यश्च न्यङ्मध्योत्तमकुत्स्यास्ते च ते भोगाश्च न्यङ्मध्योत्तमकुत्स्यभोगास्तैरुपलक्षिता ज जघन्यभोगभूमिमध्यमभोगभूमिरुत्तमभोगभूमिः कुभोगभूमिश्चेति चतस्रस्तासु भुक्ताः कल्पवृक्षादिसंपादितेष्ट- १५ विषयोपभोगसुखेन निर्जीर्णश्चासाववशेषश्चोद्धृतो यो वृषः पुण्यविशेषस्तस्मात् । तादृक्पात्रवितीर्णभुक्तिःतादृग्भ्यो न्यङ्मध्योत्तमकुत्स्येभ्यः पात्रेभ्यो वितीर्णा दत्ता भुक्तिराहारो येन स तथोक्तः। पात्रापात्रलक्षणं शास्त्रे यथा 'उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढयं मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् । ज्ञानके अभावमें तो केवल कायक्लेश होता है। इसी तरह ज्ञानाराधन स्वयं एक तप है। अन्तरंग तपके भेदोंमें स्वाध्यायको तप कहा है। तथा तपस्याके द्वारा ही केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है । तथा तप और ज्ञान दोनोंसे मुक्ति मिलती है इसलिए ज्ञान, तप, ज्ञानी तपस्वी ये सभी पूज्य हैं । सोमदेव सूरिने भी कहा है कि तपके बिना अकेला ज्ञान भी आदरके योग्य है, और ज्ञानके बिना अकेला तप भी पूज्य है। जिसमें ज्ञान तप दोनों होते हैं वह देवता है और जिसमें न ज्ञान है और न तप है वह तो केवल स्थान भरनेवाला है ॥६६॥ आगे मिथ्यादृष्टिके सुपात्रको ही आहारदान देनेसे उत्पन्न हुए पुण्यके फलकी विशेषता और अपात्र दानकी व्यर्थता बतलाते हैं जघन्य पात्र, मध्यम पात्र, उत्तम पात्र तथा कुपात्रको दान देनेवाला मिथ्यादृष्टि जघन्य भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि उत्तम भोगभूमि, और कुभोगभूमिमें भोगनेसे बाकी बचे पुण्यसे यथायोग्य देव होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि सुपात्र दानसे होनेवाले पुण्यके उदयसे उत्तम भोगभूमि, महर्द्धिक कल्पवासी देव और चक्रवर्ती आदि पदोंको यथेष्ट भोगकर मोक्षपदको पाता है । परन्तु अपात्रको दान देना व्यर्थ है ॥६७॥ १. 'मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोऽहितम् । द्वयं यत्र स देवः स्याद् द्विहीनो गणपुरणः ।' -सो. उपा., ८१५ श्लो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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