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________________ १०४ धर्मामृत ( सागार) निर्दशनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥' [पय. पञ्च. २।४८ ] 'उत्तमपत्तं साह मज्झिमपत्तं च सावया भणिया। अविरदसम्माइट्टी जहण्णपत्तं मुणेयव्वं ॥ [ 'जं रयणत्तयरहियं मिच्छामय कहियधम्म अणुलग्गं । जइ विहु तवइ सुघोरं तहवि हु तं कुच्छियं पत्तं ।। जस्स ण तवो ण चरणं न चावि जस्सत्थि वरगुणो को वि। तं जाणेह अपत्तं अफलं दाणं कयं तस्स ॥ [ भावसं. ५३०१५३१ ] आर्षे पुनः धेयो युवराजः पात्रापात्रलक्षणं भरतराजर्षिमन्वशीषत् 'जघन्यं शीलवान्मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । सदृष्टिमध्यमं पात्रं निःशीलवतभावनः ।। सदृष्टिः शीलसंपन्नः पात्रमुत्तममिष्यते । कूदष्टिर्यो विशीलश्च नैव पात्रमसो मतः ।। कुमानुषत्वमाप्नोति जन्तुर्दददपात्रके । अशोधितमिवालाम्बु तद्धि दानं विदूषयेत् ॥'[ महापु. २०११४०-१४२] - यथास्वं-यद्यत्स्वमात्मीयं दानं तत्तदनतिक्रमणेत्यर्थः। तत्र मिथ्यादष्टिजंघन्यपात्रायाहारदानं दत्वा जघन्यभोगभूमौ निरातंकभोगान् भुक्त्वा स्वायुःक्षये यथाभाग्यं स्वगं गच्छेत् । तत्तत्पात्रसन्निधानात्तथाविधशुभपरिणामविशेषोपपत्त्या तादृक् पुण्यप्रचयानुभावात् । स एव च कुपात्राहारं दत्वा कुभोगभूमौ निभूषणविवस्त्र-गुहा-वृक्षमूलनिवास्यैकोरुकादिशरीरो भूत्वा स्वसमानपल्या सह यथास्वं निराबाधतया भोगं भुक्त्वा पल्योपमात्रस्वायुःक्षये मृत्वा स्वर्गे वाहनदेवो वा ज्योतिष्को वा व्यन्तरो वा भवनवाती वा भूत्वा दीर्घ २१ दुर्गतिदुःखानि भुञ्जानः संसरति । किञ्च, ये भोगभूमिषु ये च मानुषोत्तरपर्वताद् बहिः प्राक् च स्वयंप्रभपर्वता त्तिर्यञ्चो, ये च म्लेच्छराजगजतुरगादयो वेश्यादयो वा नीचात्मानो भोगभाजो दृश्यन्ते ते सर्वे कुपात्रदानतो यथापरिणाममुत्पन्नेन मिथ्यात्वसहचारिणा पुण्येन तथा स्युरिति निर्णयः । उक्तं च विशेषार्थ-मुनिको उत्तम पात्र, अणुव्रती श्रावकको मध्यम पात्र, सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र, सम्यग्दर्शनसे रहित व्रतीको कुपात्र तथा सम्यग्दर्शन और व्रतसे रहितको अपात्र कहते हैं। अमितगति आचार्यने अपने श्रावकाचार (११।५-१८) में उत्तम पात्रका स्वरूप विस्तारसे बतलाते हुए लिखा है-वह जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थानके भेदोंको जानकर जीवोंकी रक्षा करता है। सूर्य की तरह परोपकारमें तत्पर रहता है, हितमित वचन बोलता है। परधनको निर्माल्यकी तरह मानता है। दाँत साफ करनेके लिए तिनका तक नहीं उठाता । पशु, मनुष्य, देव और अचेतनके भेदसे चार प्रकारकी नारियोंसे ऐसे दूर रहता है मानो वे महामारी हैं । प्रासुक मार्गसे चार हाथ भूमि देखकर जीवोंकी रक्षा करते हुए गमन करता है। छियालीस दोषोंको टालकर नवकोटिसे विशुद्ध आहार करता है और सरस तथा विरस आहार में समान बुद्धि रखता है। प्रत्येक वस्तुको सावधानीके साथ रखता तथा उठाता है। किसीको बाधा न पहुँचाते हुए प्रासुक तथा गुप्त स्थानमें मल-मूत्र करता है। चंचल चित्तको वशमें रखता है। कर्मों के क्षयके लिए कायोत्सर्ग करता है। कृत्य और अकृत्यको जानता है। इस प्रकार जो सम्यक् रूपसे व्रत, समिति और गुप्तिको पालता है वह उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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