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________________ १०१ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय) पुनस्तद समर्थनार्थमाह भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः। तदुष्यन्तमतो रक्षेद्धीरः समयभक्तितः ॥६५॥ विशेषार्थ-दिगम्बर जैन धर्मका मुनिमार्ग अत्यन्त कठिन है। और इस कालमें तो उसका पालन करना और भी कठिन है। फिर भी मुनिमार्ग चालू है। किन्तु उसमें शिथिला चारिता बढ़ी है इसीसे मुनियोंकी आलोचना कुन्दकुन्द-जैसे महर्षियोंने अपने षट् प्राभृतोंमें की है। जब मुनिपदने भट्टारकोंका रूप लिया तब तो शास्त्रज्ञ श्रावकोंके द्वारा उनकी और भी अधिक आलोचना हुई। पं. आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृत (२।९६) में उन्हें म्लेच्छवत् आचरण करनेवाला कहा है और एक पुराना इलोक उद्धृत किया है जिसमें कहा है कि चारित्रभ्रष्ट पण्डितों और बठर तपस्वियोंने निर्मल जिनशासनको मलिन कर दिया। लगता है दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दीमें शिथिलाचारी मुनियोंका विरोध इतना बढ़ा कि श्रावकोंने उन्हें आहार तक देना बन्द कर दिया। तब उदारमना सोमदेवाचार्यको इस ओर ध्यान देना पड़ा। उन्होंने अपने उपासकाचारमें लिखा है-भोजनमात्र देनेके लिए साधुओंकी परीक्षा नहीं करना चाहिए। वे सज्जन हों या दुर्जन, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता है। गृहस्थ अनेक आरम्भोंमें फंसे रहते हैं और उनका धन भी अनेक प्रकारसे खर्च होता है। अतः तपस्वियोंके आहारदानमें ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए । मुनिजन जैसे-जैसे तप-ज्ञान आदिमें विशिष्ट हों वैसे-वैसे गृहस्थोंको उनका अधिकअधिक समादर करना चाहिए। धन भाग्यसे मिलता है अतः भाग्यशाली परुषोंको कोई मुनि आगमानुकूल मिले या न मिले, उन्हें अपना धन धार्मिकोंमें अवश्य खर्च करना चाहिए। जिन भगवान्का यह धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे भरा है। जैसे मकान एक स्तम्भपर नहीं ठहर सकता, वैसे ही धर्म भी एक पुरुषके आश्रयसे नहीं ठहरता। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावकी अपेक्षा मुनि चार प्रकारके होते हैं और वे सभी दान-सम्मानके योग्य हैं । किन्तु गृहस्थोंके पुण्य उपार्जनकी दृष्टि से जिनविम्बोंकी तरह उन चार प्रकारके मनियोंमें उत्तरोत्तर विशिष्ट विधि होती जाती है। यह बड़ा आश्चर्य है कि इस कलिकालमें योंका मन चंचल रहता है और शरीर अन्नका कोडा बना रहता है. आज भी जिन रूपके धारक पाये जाते हैं। जैसे पाषाण वगैरहमें अंकित जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिकृति पूजने योग्य है, वैसे ही आजकल मुनियोंको भी पूर्वकालके मुनियोंकी प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए। इस तरह सोमदेव सूरिने वर्तमान मुनियोंको पूर्व मुनियोंकी प्रतिकृति मानकर पूजनेका निर्देश किया है। पं. आशाधरजीने भी उन्हींका अनुसरण करते हुए वतमान मुनियों में पूर्व मुनियोंकी स्थापना करके उनको पूजनेकी प्रेरणा की है । आचार्य पद्मनन्दिने भी कहा है 'आज इस पंचमकालमें भरत क्षेत्रमें तीनों लोकों में श्रेष्ठ केवली नहीं हैं किन्तु जगत्के स्वरूपको प्रकाशित करनेवाली उनकी वाणी विद्यमान है तथा उस वाणीके आलम्बन रत्नत्रयके धारी मुनिवर विद्यमान हैं। उनकी पूजा जिनवाणीकी ही पूजा है और जिनवाणीकी पूजा साक्षात् जिनेन्द्रदेवकी पूजा है' ॥६४।। उसीके समर्थनमें पुनः कहते हैं शुभ भाव पुण्यके लिए और अशुभ भाव पापके लिए होता है। इसलिए भावोंमें विकार होनेपर धीर पुरुषको जिनशासनके अनुरागसे रक्षा करना चाहिए ॥६५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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