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धर्मामृत ( सागार) विषयेषु सुखभ्रान्ति कर्माभिमुखपाकजाम् ।
छित्वा तदुपभोगेन त्याजयेत्तान् स्ववत्परम् ॥६२॥ स्पष्टम् ।।६२॥
अथ दुःषमकालवशात्प्रायेण पुरुषाणामाचारविप्लवदर्शनाद् विचिकित्साकुलितचित्तदातुः सौचित्यविधानार्थं चतुरः श्लोकानाह
दैवाल्लब्धं धनं प्राणैः सहावश्यं विनाशि च ।
बहुधा विनियुञ्जानः सुधीः समयिकान् क्षिपेत् ॥६३॥ विनियुञ्जानः-व्ययमानः । समयिकान्-समयाश्रितान् गृहस्थान् यतीन्वा । क्षिपेत्-धिगिमान् ९ संभावणमात्रस्याप्ययोग्यानित्याद्यवर्णवादेन तिरस्कुर्यात काक्वा न क्षिपेदिति प्रतिषेधे पर्यवस्यति ॥६३॥ किं तहि कुर्यादित्याह
विन्यस्यैदयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत् कुतः श्रेयोऽतिचिनाम् ॥६४॥ विन्यस्य-नामादि विधिना निक्षिप्य । ऐदंयुगीनेषु-अस्मिन् युगे साधुषु ॥६४॥
अपना फल देने के लिए तैयार हुए चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे मनुष्यको विषयोंमें सुखकी भ्रान्ति होती है वह ये सुखरूप हैं या सुखके हेतु हैं ऐसा मानता है। उस भ्रान्तिको विषयोंका सेवन करनेसे दूर करना चाहिए। और फिर अपनी ही तरह दूसरोंको भी कन्या आदि देकर यह विषय छुड़ाना चाहिए । ६२॥
विशेषार्थ-चारित्रमोहके उदयसे पीड़ित मनुष्यको विषय-सेवन अच्छा लगता है। वह मानता है कि विषयमें सुख है । उसका यह भ्रम दूर करनेका उपाय है कि उसका विवाह करा दिया जाये । इससे वह विषयोंकी यथार्थता समझकर स्वयं ही विषयोंसे विमुख होकर दूसरोंको भी भ्रान्ति दूर करनेका प्रयत्न करेगा ॥२॥
पंचम कालके प्रभावसे प्रायः मनुष्योंके आचारमें शिथिलता देखनेसे दाताका मन ग्लानिसे भर जाता है । अतः उनके चित्तके समाधानके लिए चार श्लोक कहते हैं
पुण्य कर्मके उदयसे प्राप्त हुआ धन प्राणोंके साथ अवश्य नष्ट होनेवाला है। उस धनको अनेक प्रकारसे खर्च करनेवाला गृहस्थ क्या साधर्मियोंका तिरस्कार करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा ॥६३॥
विशेषार्थ-संसारमें दैवकी ही बलवत्ता मानी जाती है और पौरुषको गौणता दी जाती है । दैवके अनुकूल होनेपर ही पौरुष भी सफल होता है। अतः धनकी प्राप्तिमें पुण्य कमका उदय प्रधान है। इसके साथ ही यह तो स्पष्ट ही है कि मनुष्यके मरते ही उसके लिए तो सब धन नष्ट ही हो जाता है। ऐसी स्थितिमें जब गृहस्थ शादी-विवाह, भोग-उपभोगमें खूब धन खर्च करता है तो यदि वह विचारशील है और लोक-परलोकको समझता है तो क्या वह धार्मिकोंका विशेषतया मुनियोंका यह कहकर तिरस्कार करेगा कि ये तो बात करने लायक भी नहीं है ? ॥६३।।।
ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिए, यह बतलाते हैं
जैसे प्रतिमामें जिनदेवकी स्थापना करके उनकी पूजा करते हैं उसी तरह इस युगके साधुओंमें पूर्व मुनियों की स्थापना करके भक्तिपूर्वक पूजा करे। क्योंकि अत्यन्त नुक्ताचीनी करनेवालोंका कल्याण कैसे हो सकता है ॥६४॥
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