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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) अथ दुष्कलत्रस्याकलत्रस्य वा पात्रस्य भूम्पादिदानान्न कश्चिदुपकारः स्यादित्यममर्थमवश्यं कन्याविनियोगेन सधर्माणमनुगृह्णीयादिति विधिव्यवस्थापनार्थमर्थान्तरन्यासेन समर्थयते सुकलत्रं विना पात्रे भूहेमादिव्ययो वृथा। कोटेर्दन्दश्यमानेऽन्तः कोऽम्बुसेकाद् द्रुमे गुणः ॥६१॥ पात्रे-संयुज्यमानमोक्षकारणगुणे गृहिणि । गुणः--उपकारः । यल्लोकः 'तणयं णासइ वंसो णासइ दियहो कुभोयणे भुत्ते ।। कुकलत्तेण य जम्मो णासई धम्मो विणु दयाए ।'[ ] ॥६१॥ अथ विषयसुखोपभोगेनैव चारित्रमोहोदयोद्रेकस्य शक्यप्रतीकारत्वात्तद्द्ववारेणैव तमपवात्मानमिव ९ साघमिकमपि विषयेभ्यो व्युपरमेदित्युपदेशार्थमाह विशेषार्थ-सोमदेवजीने भी अपने नीतिवाक्यामृतमें विवाह के ये ही फल बतलाये हैं। सबसे पहला फल है धर्मसन्तति । इसके दो अर्थ होते हैं-धार्मिक सन्तान और धर्मकी परम्परा । धार्मिक सन्तानसे ही धर्मकी परम्परा चलती है। और धार्मिक सन्तान तभी होती है जब माता-पिता दोनों धर्मात्मा हों। उनमें भी मातापर बहुत कुछ निर्भर है क्योंकि बालकके लालन-पालनमें माताका विशेष हाथ होनेसे उसीके संस्कार बालकमें आते हैं और ऐसे संस्कारित बालकोंसे धर्मकी परम्परा चलती है। विवाहका दूसरा फल है निर्बाध सम्भोग। अपनी पत्नीसे प्रेम करने में मनुष्य स्वतन्त्र होता है उसमें किसी प्रकारका भय नहीं रहता। इससे निर्विघ्न कामशान्ति होनेसे मनुष्य आवारागर्दीसे बच जाता है और उसका चारित्र उन्नत होता है। यह विवाहका तीसरा फल है। स्वदार सन्तोष मनष्यके चारित्रकी उन्नतिका ही सूचक है । चारित्रकी उन्नतिके साथ वंशकी उन्नति विवाहका चतुर्थ फल है । धर्मात्मा सन्तानसे जैसे धर्मकी परम्परा चलती है वैसे ही वंशकी भी परम्परा चलती है। पाँचवा फल है अतिथि सत्कार । अतिथिमें मुनि-व्रती आदि तो आते ही हैं बन्धु-बान्धव भी आते हैं। अपने घरमें इन सब आगन्तुकोंका सत्कार पत्नीके द्वारा ही सम्भव होता है । अतः विवाह करना आवश्यक है ॥६०॥ ___ 'सत्कन्या देकर साधर्मीका उपकार अवश्य करना चाहिए' इस विधिकी व्यवस्थाके लिए जिसके घरमें पत्नी नहीं है या दुष्टा पत्नी है उसे भूमि आदि देनेसे कोई लाभ नहीं है इस बातका समर्थन करते हैं सत्पत्नीके बिना गृहस्थको भूमि-सुवर्ण आदिका दान देना व्यर्थ है। जिस वृक्षके मध्य भागको कीटोंने बुरी तरह खा डाला हो, उसे पानीसे सीचनेसे क्या लाभ है ? किसीने कहा है-कुपुत्र वंशका नाशक है, कुभोजन करनेसे वह दिन ही नष्ट होता है। किन्तु कुपत्नीसे जन्म ही नष्ट हो जाता है ॥६१॥ विषय-सुखके उपभोगसे ही चारित्रमोहके तीव्र उदयका प्रतीकार हो सकता है, इस लिए उसके द्वारा ही स्वयं विषय-सेवनसे निवृत्त होकर अपनी ही तरह अन्य साधर्मियोंको भी विषय सेवनसे निवृत्त करना चाहिए, यह उपदेश देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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