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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय) अथ भावजनं प्रति निरुपाधिप्रीतिमतोऽभ्युदयनिःश्रेयससंपदं फलमाह प्रतीतजैनत्वगुणेऽनुरज्यन्निाजमांसंसृति तेद्गुणानाम् । धुरि स्फुरन्नभ्युदयैरदृप्तस्तृप्तस्त्रिलोकोतिलकत्वमेति ॥५५॥ अनुरज्यन्-स्वयमेवानुरागं कुर्वन् । आसंसृति तद्गुणानां धुरिस्फुरन्-भवे भवे जैनानामग्रणीभवन्नित्यर्थः । अदृप्तः-अकृतमदः । सम्यक्त्वसहचारिपुण्योदययोगात् ।।५५॥ अथ गृहस्थाचार्याय तदभावे मध्यमपात्राय वा कन्यादिदानं पाक्षिकश्रावकस्य कर्तव्यतयोपदिशति निस्तारकोत्तमायाथ मध्यमाय सधर्मणे। कन्याभहेमहस्त्यश्वरथरत्नादि निर्वपेत् ॥५६॥ अथ पक्षान्तरसूचने अधिकारे वा। तत्र जघन्यविषयां समदत्ति व्याख्याय मध्यमविषया साऽवधिक्रियत ९ इत्यर्थः । सधर्मणे-समान आत्मसमो धर्मः क्रियामन्त्रव्रतादिलक्षणो गुणो यस्य तस्मै । रत्नादि । आदिशब्देन वस्त्रगृहगवादि । निर्वपेत्---दद्यात् । उक्तं च चारित्रसारे (प. २१ )-'समदत्तिः स्वसमक्रियामन्त्राय निस्तारकोत्तमाय कन्या भूमि-सुवर्ण-हस्त्यश्व-रथ-रत्नादिदानं, स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानमिति ॥५६॥ १२ विशेषार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे निक्षेपके चार भेद हैं। जो मात्र नामसे जैन है उसे नामजैन कहते हैं। जिसमें 'यह जैन है' ऐसी कल्पना कर ली गयी है वह स्थापनाजैन है। जो आगे जैनत्व गुणकी योग्यतासे विशिष्ट होनेवाला है वह द्रव्य. जैन है। और जो वर्तमानमें जैनत्व गुणसे विशिष्ट है वह भावजैन है। इनमें से सबसे निकृष्ट नामजैन और स्थापनाजैन हैं। किन्तु पात्रकी दृष्टि से जैनेतर पात्रोंसे वे भी श्रेष्ठ हैं । क्योंकि उनमें जैनत्वका नाम तो है। रहे द्रव्य जैन और भावजैन, वे तो सच्चे पात्र हैं ही। इसीसे कहा है कि आजके समयमें यदि किसीको उपकार करनेके लिए ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो आगे महान जैनवती या ज्ञानी होनेवाला हो तो वह व्यक्ति धन्य है। और यदि पात्र मुनि आदि हो तब तो ऐसे पात्रको दान देनेवाला महाभाग्यशाली है ॥५४॥ _ आगे कहते हैं कि जो भावजैनके प्रति निश्छल प्रीति रखता है उसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है- जिसका जैनत्व गुण प्रसिद्ध है ऐसे पुरुषमें निश्छल अनुराग करनेवाला व्यक्ति संसार पर्यन्त अर्थात् भव-भवमें प्रसिद्ध जैनत्व गुणवाले पुरुषोंमें अग्रणी होता हुआ, सम्यक्त्व सहचारी पुण्योदयके योगसे सांसारिक भोगोंसे विरक्त होकर तीनों लोकोंके तिलकपनेको अर्थात् परमपदको प्राप्त करता है ।।५५।। आगे कहते हैं कि पाक्षिक श्रावकको सबसे प्रथम गृहस्थाचार्यको उसके अभावमें मध्यम पात्रको कन्या आदि देना चाहिए संसाररूपी समुद्रसे पार उतारनेवाले गृहस्थों में जो प्रमुख हो, उसके अभावमें मध्यम साधर्मी के लिए कन्या, भूमि, स्वर्ण, हाथी, घोड़ा, रथ, रत्न आदि देना चाहिए ॥५६।। विशेषार्थ-कन्यादान भी समदत्तिमें आता है। पहले जो कहा था कि नाम और स्थापनासे जो जैन है वह भी पात्र है और उसे भी दान देना चाहिए । वह जघन्य समदत्तिका कथन है और यह मध्यम समदत्तिका कथन है। क्योंकि यदि गृहस्थ साधुकी अपेक्षा गुणोंमें अधिक भी हो तब भी मध्यम पात्र ही होता है उसे ही कन्या देना चाहिए। कन्या१. 'सद्गुणानाम्' इति टीकायाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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